Monday, 5 September 2016

-: छ: :-

#आज_का_विचार

कथित आधुनिक विज्ञान इस चराचर सृष्टि को भी कोई फैक्ट्री उत्पाद मानते हुए पृथ्वी और पृथ्वी पर उपस्थित जीवन का प्रतिरूप खोजते भटकता फिर रहा है! ए मूर्ख! (जी हाँ...आज मैं विज्ञान का मानवीकरण करते हुए उसे मूर्ख कहने का दु:साहस कर रहा हूँ) इसी पृथ्वी पर जिसके हजारों वर्षों के मानव इतिहास को तू अपने ही मापदंड़ों पर स्वीकार करता है, उस इतिहास से लेकर मौजूदा संसार में भी जब तुझको किसी एक जीव का भी प्राकृतिक प्रतिरूप नहीं मिलता तो तू किस आधार पर अनंत ब्रह्माण्ड़ में पृथ्वी और पृथ्वीवासी मानव के प्रतिरूप हो सकने की कल्पना कर पाता है!!!

अरे प्रकृति तो रचनाकार है, कोई धनलोलुप व्यवसायी नहीं। जो अपने प्रत्येक आविष्कार/निर्माण को फैक्ट्रियों के हवाले कर धन-मान-यश-अवैध कब्जे जमाने के लिए उनका प्रयोग करे। उसकी प्रत्येक रचना मौलिक है।

अत: कुछ समझना है तो उसके विधान को समझ। बनना है तो उसका सहयोगी बन। करना है तो अपनी चेतना को विकसित कर प्रकृति के साथ साम्य प्राप्त कर। अन्यथा वह तो स्वभाव से बड़ी ही निर्मम रचनाकार है।


Tuesday, 19 January 2016

-: पाँच :-

शिक्षा का उद्देश्य

शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति में नैतिक, सामाजिक और व्यवसायिक चेतना विकसित करना होता है।

जो शिक्षा व्यवस्था व्यक्ति में में इन तीनों चेतनाओं को समानुपात में विकसित करे वह उत्तम,

जो केवल नैतिक और सामाजिक चेतना ही विकसित करे वह मध्यम,और

जो सामाजिक और व्यवसायिक अथवा मात्र व्यवसायिक चेतना तक ही सीमित हो वह शिक्षा व्यवस्था अधम श्रेणी की होती है।


कम से कम आधुनिक भारतीय शिक्षा व्यवस्था तो अंतिम तीसरी श्रेणी में ही आती है।


Saturday, 16 January 2016

-: चार :-

जो त्याज्य हैं उन्हें मोह अथवा अन्य कारणवश प्रेम करना कुप्रेम कहलाता है।

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जो त्याग देने योग्य हैं जैसे मॄतक, अधर्मी, मूर्ख, अपराधी इत्यादि चाहे सगे ही क्यों न हों, त्याग देने ही हितकारी हैं। इन्हें मोहवश या स्वार्थवश चिपटाए रखना या चिपटे रहना कुप्रेम है।


Thursday, 7 January 2016

-: तीन :-


मौन  :-



मौन तीन प्रकार का होता है -

प्रथम - ऋषि अर्थात्‌ आत्मचिंतनी मौन - उत्तम।

द्वितीय - कोकिला अर्थात् ‌ सामयिक मौन - मध्यम। और

तृतीय - सियार अर्थात्‌ अन्याय समर्थक  मौन - अधम।


-: दो:-


रचनाकार को त्रिकालदर्शी होना पहली और अनिवार्य शर्त है। सीमित दृष्टि रखने वाला चाहे जो भी हो सकता है, रचनाकार कभी नहीं।

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त्रिकाल में जिसकी दृष्टि का परास जितना बड़ा होता है वह उतना ही बड़ा रचनाकार कहलाता है।

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'रचनाकर्म' की परास केवल साहित्य तक ही नहीं मानी जानी चाहिए। वास्तु-शिल्प-चित्रकला-अभिनय से लेकर विज्ञान-भाषा-राजनीति-सामाजिकता सब इसी परास में ही आते हैं।