Monday 25 February 2013

भीष्म अभिमन्यु संवाद

करूक्षेत्र की रणभूमि में पितामह भीष्म और अभिमन्यु का आमना-सामना होने पर हुआ संवाद पढें फायकू में-

पितामह भीष्म-
1-
किसके सुत हे! धनुर्धारी
क्या नाम कहूँ
तुम्हारे लिए

2-
ह्रदय प्रेम उमडता तात
मैं कैसे शत्रु
तुम्हारे लिए!

3-
हाथ आशीष को उठता
कैसे शूल उठाऊँ
तुम्हारे लिए

4-
भीष्म राह आन अडे
नहीं उचित सुकुमार
तुम्हारे लिए

5-
कैसा कुटिल हुआ विधाता
खडग उठाऊँ वत्स
तुम्हारे लिए

6-
घर लौट जाओ पुत्र
समर योग्य नहीं
तुम्हारे लिए
..............
अभिमन्यु-

1-
कुरूक्षेत्र मध्य मैं अभिमन्यु
आन खडा पितामह
तुम्हारे लिए

2-
पिता जगतपिता सखा हैं
पौत्र कहलाते हैं
तुम्हारे लिए

3-
चक्रधर सखी की आन
लेकर, सममुख आया
तुम्हारे लिए

4-
हाथ शूल, बाण धनुष
संधान करूँ मैं
तुम्हारे लिए

5-
दो अशीष हे पितामह!
चरण नमन यह
तुम्हारे लिए
*****

Monday 18 February 2013

फायकू "माँ"

बात यदि समर्पण की ही हो रही हो तो माँ को समर्पण से अधिक सुंदर तो शायद ही कुछ हो। अत: मेरी यह फायकू विधा भी माँ को ही समर्पित! वह माँ चाहे कोई शरीर धारी आत्मा हो या सर्वत्रमयी सनातन प्रकृति।
वैसे भी मेरा अपना मत है कि इस संसार में मनुष्य की केवल दो ही प्रेमिकाऐं हो सकतीं हैं- पहली 'माँ' और दूसरी 'स्वयं अपना आप' यानि 'आत्मा'।
इनके अतिक्त तो बाकि सब प्रेम के नाम का बस एक छलावा ही है।

1-
जब आई तेरी याद
लिखने बैठा माँ
तुम्हारे लिए!

2-
जग में मुझे बुलाया
माँ, जां कुर्बान
तुम्हारे लिए!

3-
तूने गोद मुझे खिलाया
कैसे धीर धरूँ
तुम्हारे लिए!

4-
तीन लोक बलिहारी माँ
शीश चरण धरूँ
तुम्हारे लिए!

5-
धन दौलत चीज क्या
जहाँ लुटाऊँ माँ
तुम्हारे लिए!

6-
धरती अंबर पर्वत सागर
कम लगते माँ
तुम्हारे लिए!

7-
सूरज चाँद सितारे माँ
मुझसे कम हैं
तुम्हारे लिए!

8-
चरण धरो तुम जहां
पलकें बिछाऊ माँ
तुम्हारे लिए!

9-
जब आई याद तुम्हारी
नीर बहा माँ
तुम्हारे लिए!

10-
अगर झुकेगी कमर तुमहारी
सहारा बनूँ माँ
तुम्हारे लिए!

11-
तेरा आँचल रहे सदा
दुआ करूँ यही
तुम्हारे लिए!
*****

Tuesday 12 February 2013

अहम् ब्रह्मास्मि:

हाँ, मैं ब्रह्मा हूँ।
मैं ही प्रतिपल रचता हूँ
अनेकों ब्रह्माण्ड।
विभिन्न प्रतियां-कृतियां
मेरी ही कल्पनाऐं मात्र हैं
प्रतिक्षण
बनाता-मिटाता रहता हूँ
विभिन्न पात्र।
मेरे एक पल मे
बीत जाते हैं उनके
हजारों वर्ष-युग-कल्प।
मैं ही गढता रहता हूँ
उनके भूत-भविष्य
और वर्तमान भी।
सारे सुख-दुख, मिलन-विछोह
मेरी ही कल्पनाओं के
चित्रण मात्र हैं।
मेरी ही इच्छा से
चलते- फिरते, बोलते-बैठते हैं
समस्त पात्र।
और मेरी ही इच्छा से
स्थित भी होते हैं।
मेरी ही इच्छा से
बहने लगती है
सरस-सलिल।
फैल जाती है दावानल
सागर उगलने लगते हैं
लावा
और पल में ही
सजने लगतीं हैं शहनाईयां।
मैं ही समस्त
भाग्य-दुर्भाग्य का विधाता हूँ।
हाँ, निश्चय ही
मैं ही ब्रह्मा हूँ
अपनी दुनिया का!
[अजय त्यागी]