Wednesday 7 July 2021

चेतावनी

                      दृश्य १.

[२१ वीं शदी के अंतिम दशक की एक विशाल प्रयोगशाला, जिसकी दीवारों व छत का प्रत्येक छोटे से छोटा भाग भी किसी न किसी यंत्र के पीछे छिपा है। दर्जन भर से भी अधिक बेडौल सी आकृति-प्रकृति के यंत्र प्रयोगशाला में इधऱ-उधर चहलकदमी करते दिखाई पड़ रहे हैं। जो दूसरे यंत्रों का संचालन करने के साथ-साथ आवश्यक सामग्री का आदान-प्रदान भी कर रहे हैं।
विभिन्न यंत्रों से उत्पन्न होने वाली धीमी ध्वनियाँ मिश्रित स्वर में किसी बीहड़ जंगल में अनेक कीटों द्वारा उत्पन्न ध्वनि का आभास दिला रहीं हैं।


तभी प्रयोगशाला का द्वार खुलता है और विश्व के महान वैज्ञानिक डा मनु एक सामान्य वेषभूषा में प्रयोगशाला में प्रवेश करते हैं और एक बड़ी ही नियंत्रित दृष्टि पूरी प्रयोगशाला की व्यवस्था पर डालते हैं। फिर एक अलमारी की ओर बढ़ते हैं जो उनके निकट पहुँचने पर स्वतः ही खुल जाती है। तब डा. मनु कवच सदृश कुछ यंत्र उसमें से निकालकर अपने हाथों, सर व सीने पर लगा लेते हैं और अपने कार्य में जुट जाते हैं।


उसी समय एक दिव्य ज्योति प्रयोगशाला में प्रकट होती है और एक मनुष्य का रूप धारण करती है। उसकी वेषभूषा पन्द्रहवीं शताब्दी के किसी विद्वान पंडित के समान है परन्तु मुख मण्डल पर एक अनुपम तेज है]

डा.मनु - (चौंककर, तेज़ी से) कौन........., कौन हो तुम? सावधान, अपनी जगह से हिलना नहीं!

अजनबी - (शान्त स्वर में) हम ब्रह्मदूत हैं, आपको अपने साथ ले चलने के लिए आए हैं।

डा. मनु - कौन ब्रह्मदूत? (विचलित होते हुए) कहाँ ले जाना चाहते हो मुझे???

ब्रह्मदूत - मुझे पूज्य श्री परमपिता ब्रह्मा जी ने आपको ब्रह्मलोक लिवा लाने के लिए भेजा है।

डा. मनु - (लापरवाही से) कौन ब्रह्मा? मैं किसी ब्रह्मा को नहीं जानता। (कुछ याद करके) अरे हाँ..... कहीं तुम उन ब्रह्मा जी के बारे में तो बात नहीं कर रहे जिन्हें पहले सृष्टि का जनक कहा जाता था !?

ब्रह्मदूत - जी हाँ , उन्हीं ने मुझे यहाँ दूत बनाकर भेजा है।

डा. मनु - (शंकित दृष्टि से) इसका कोई प्रमाण?

ब्रहमदूत - (तनिक क्रुद्ध होकर) (तेज़ी से) हमें झूठा कहकर तुम हमारा अपमान कर रहे हो, मनुष्य....।

डा. मनु - (हँसते हुए) नहीं-नहीं क्रोधित मत होईये ब्रह्मदूत जी, मेरा यह मतलब नहीं था। मैं तो जानना चाहता था कि आखिर ब्रह्मा जी को मुझ अकिन्चन की क्या आवश्यकता आन पड़ी!!!???

ब्रह्मदूत - (शान्त होकर) यह तो तुम्हें उनके पास चलकर ही ज्ञात हो सकेगा। चलिए जल्दी तैयार हो जाईए।

डा. मनु - (व्यंग्यात्मक स्वर मेंं) यदि मैं मना करूँ तो....?

ब्रह्मदूत - (तुनककर) मूर्ख...... मनुष्यों ने तो उनका एक दर्शन पाने मात्र के लिए सैकड़ों-सैंकड़ों वर्षो तक भूखे-प्यासे रहकर तपस्या की है और तुम्हें जब उन्होंने स्वयं याद किया है तो तुम मना कर रहे हो!!!

डा. मनु - अरे नहीं ब्रह्मदूत जी...... मैं तो ये कह रहा था कि इतनी भी क्या जल्दी है, अभी तो आप इतनी दूर से आए हैं..... थोड़ा विश्राम तो किजिये। फिर चलते हैं।

ब्रह्दूत - नहीं, हम यहाँ अधिक देर नहीं रुक सकते। ब्रह्मदेव ने हमें कठोर आदेश दिए हैं कि हम यहाँ किसी भी वस्तु को स्पर्श न करें।

डा. मनु - (विस्मित होकर) परन्तु...ऐसा क्यों.....??

ब्रह्मदूत - क्योंकि तुमने प्रकृति के कण-कण को तोड़-मरोड़कर रख छोड़ा है। जिससे यहाँ सबकुछ हमारे लिए अत्यन्त अविश्वसनीय हो गया है। अब वार्तालाप में समय नष्ट मत करो और अतिशीघ्र प्रस्थान के लिए तैयार हो जाओ।

डा. मनु - (लाचारी पूर्वक) ठीक है.... अब आप जिद्द पर अड़ ही गये हैं तो चलिए.......इस बहाने आपके ब्रह्मलोक भी घूम आऐंगे।

ब्रह्मदूत - चलिए....... (रुककर) पहले अपने ये आभूषण यहीं उतार दीजिए।

डा. मनु - (आश्चर्य से) आभूषण.....!!!??? (हँसते हुए) ओह..., अच्छा-अच्छा....।

[डा. मनु यंत्रों को उतार कर रख देते हैं और फिर दोनों अंतर्ध्यान  हो जाते हैं]

                       दृश्य २.

[डा मनु एक विचित्र स्थान पर आश्चर्य से चारों ओर देखते हुए अकेले अकेले चले जा रहे हैं। चारों ओर अपूर्व शान्ति है। वे जिधर देखते हैं उन्हें विभिन्न रंगों से प्रकाशित असंख्य तारे दिखाई पड़ते हैं]

डा मनु -  क्यों ब्रह्मदूत जी, अभी कितनी दूर बाकी है अपका ब्रह्मलोक?

              [डा मनु चारों ओर देखते हैं परन्तु वहाँ उनके अतिरिक्त कोई नहीं है]

डा मनु - (घबराकर) अरे ब्रह्मदूत जी......(तेजी से) ब्रह्मदूत जी!!........ओह नो......यह ब्रह्मदूत मुझे यहाँ छोड़कर कहाँ गायब हो गया!!??(चिंतित होकर अपने-आप से)अब मुझे क्या करना चाहिए!!!

           [तभी ब्रह्मदूत की आवज सुनाई पड़ती है]


ब्रह्मदूत की आवज - शान्त रहो मनुष्य, शान्त रहो........!

डा मनु - (चौंककर) अरे ब्रह्मदूत जी, आप हैं कहाँ? (कुछ परेशान होकर) देखिए ब्रह्मदूत जी, मुझे न तो यहाँ से ब्रह्मलोक का रास्ता पता है और न ही मैं ब्रह्मदेव जी को पहचानता हूँ। देखिए प्लीज़ पहले एक बार उनसे मेरा परिचय करा दीजिए, फिर कहीं चले जाइएगा।

ब्रह्मदूत की आवाज - शान्त रहो मनुष्य, उत्तेजित होने की आवश्यकता नहीं है। ब्रह्मदेव जी के आदेशानुसार तुम ओर आगे नहीं जा सकते। ब्रह्मदेव स्वयं यहीं आकर तुमसे मिलेंगें।

डा मनु - परन्तु ऐसा क्यों???!!!

ब्रह्मदूत की आवाज - तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर भी तुम्हें उन्हीं से मिल सकता है।

[चारों ओर पूर्ववत शान्ति छा जाती है। डा मनु कातर दृष्टि से चारों ओर देखने लगते हैं। अचानक एक अत्यन्त तीव्र प्रकाश बिम्ब  प्रकट होता है। जिससे आँखों को चौंधिया देने वाला प्रकाश निकलकर चारों ओर फैलने लगता है। साथ ही मन को लुभा लेने वाला एक धीमा-मधुर संगीत भी गूँजने लगता है। डा मनु प्रकाश की चकाचौंध से बचने का प्रयास करते हुए कुछ देखने की चेष्टा करते हैं। उसी समय एक अनूठी सुगन्ध फैलती है और कमल पुष्प पर विराजमान ब्रह्मदेव प्रकट होते हैं। उनके उस अद्वितीय तेजोमय रूप को देखकर डा मनु का हृदय भावविहृल हो उठता है और वे न चाहते हुए भी ब्रह्मदेव के चरणों में गिर पड़ते हैं]

ब्रह्मदेव - तुम्हारा कल्याण हो वत्स! उठो.....उठो वत्स!!

डा मनु - (खड़े होकर, शिकायत पूर्ण स्वर में) ब्रह्मदेव! जब आपने मुझे पृथ्वी से यहां तक बुलवा लिया तो फिर ब्रह्मलोक तक जाने से क्यों रोक दिया?

ब्रह्मदेव - वत्स! तुम्हारे मन में ज्ञान प्राप्ति की जो प्यास जगी है, मैं उससे भली भांति परिचित हूँ। परन्तु जब तक तुम इस सृष्टि के दूसरे रहस्यों को नहीं सुलझा लेते तब तक तुम ब्रह्मलोक नहीं पहुँच सकते।


डा मनु - बह्मदेव! क्या सचमुच इस सम्पूर्ण सृष्टि की रचना आप ही ने की है!?


ब्रह्मदेव - हाँ वत्स, यह सम्पूर्ण सृष्टि मेरे द्वारा ही रची गई है।

डा मनु - (आश्चर्य से) परन्तु ब्रह्मदेव! आपने यह सब किस प्रकार किया!?कृपा करके मुझे इसके बारे में सबकुछ विस्तार से बतलाइए!

ब्रह्मदेव - (हँसते हुए) वत्स, तुम्हारी ज्ञान प्राप्ति की प्यास किस स्तर तक बढ़ चुकी है, मुझे यह देखकर एक सुखद आश्चर्य हो रहा है। परन्तु........।

डा मनु - परन्तु क्या......ब्रह्मदेव? क्या मुझसे कोई त्रुटि हुई है? अथवा आप मुझसे रुष्ट हैं??

ब्रह्मदेव - नहीं-नहीं पुत्र....मैं तो तुमसे अति प्रसन्न हूँ। ज्ञान प्राप्ति की तुम्हारी इसी लम्बी अटूट तपस्या के फलस्वरूप ही आज तुम्हें मेरा दर्शन प्राप्त हुआ है। परन्तु पृथ्वी पर हो रहे तुम्हारे ज्ञान के दुरुपयोग को देखकर हम भूलोक के भविष्य लिए चिंतित हैं!

डा मनु - मेरे ज्ञान का दुरुपयोग !!! अर्थात्‌ विज्ञान का दुरुपयोग!!! (हँस कर) ब्रह्मदेव! आपको निश्चय ही या तो भ्रम हुआ है अथवा किसी ने हमारी प्रगति से जलकर आपके कान भरे हैं।आप ऐसे लोगों की बातों पर ध्यान मत दीजिए।

ब्रह्मदेव - (क्रमशः तीव्र होते स्वर में) मुझे किसी से भी जानकारी प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं पड़ती वत्स, मैं स्वयं सबकुछ स्पष्ट देख सकता हूँँ। प्रकृति का बिगड़ता सन्तुलन, क्या तुम्हारे विज्ञान के दुरुपयोग का परिणाम नहीं है? मैंने दिन के समय प्रकाश हेतु सूर्य की व्यवस्था की थी, तुम्हें दिन के समय भी रात के अंधकार की आवश्यकता पड़ी। तुमने उसका प्रबन्ध कियाा। मैंनें विश्राम हेतु रात व रात को अन्धकारमय बनाया। परन्तु तुमने दिन के प्रकाश से भी अधिक प्रकाश का प्रबन्ध कर लिया......। तुमने यह सब ज्ञानार्जन हेतु किया, उचित है। परन्तु वह मनुष्य जिन्हें सूर्यास्त के पश्चात प्रकाश की आवश्यकता नहीं है, वे भी तुम्हारी तरह रात में प्रकाश उतपन्न करते हैं और दिन के समय कृत्रिम अन्धकार में सोते हैं। क्या यह विज्ञान का दुरुपयोग नहीं है? तुमने पृथ्वी को खोदा, जल को बाँधा, वायु को रोका.....किन्तु यह सब किया केवल ज्ञानार्जन के लिए। परन्तु वह लोग जिन्हें इसकी कोई विशेष आवश्यकता नहीं, क्या वे ऐसा करके विज्ञान का दुरुपयोग नहीं कर रहे हैं???


डा मनु - परन्तु हे परमपिता! जैसा कि अभी आप ने स्वीकार किया कि मैंने जो कुछ किया ज्ञान प्राप्त करने के लिए किया, अतः अब यदि वे मेरे इस ज्ञान का उपयोग धन प्राप्ति के लिए कर रहे हैं, निज सुख के लिए कर रहे हैं तो इसमें दुरुपयोग कैसा!?


ब्रह्मदेव - (पीड़ा भरे स्वर में) विज्ञान का उपयोग बुरा नहीं है वत्स! परन्तु विज्ञान का उपभोग बुराई की परिसीमा है......और वे इसका उपभोग कर रहे हैं, उपयोग नहीं। विज्ञान के उपभोग ने उन्हें आलसी, अकर्मण्य, कमजोर व कामी बना दिया है।


डा मनु - परन्तु, इसमें मैं क्या कर सकता हूँ!!! जिस प्रकार मेरे जीवन का लक्ष्य ज्ञानार्जन है, उसी प्रकार उनका लक्ष्य धनार्जन है।


ब्रह्मदेव - (कठोरता के साथ) नहीं वत्स, नहीं.....धनार्जन मानव जीवन का लक्ष्य कदापि नहीं हो सकता।


डा मनु - क्यों ब्रह्मदेव, यदि ज्ञानार्जन मानव जीवन का उद्देश्य हो सकता है तो धनार्जन मानव जीवन का उद्देश्य क्यों नहीं हो सकता?!


ब्रह्मदेव - क्योंकि संसार में धन अर्थात सन्साधनों की एक सीमित मात्रा है। और जब दो प्राणियों का उद्देश्य उस पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करना बन जाएगा तो शीघ्र ही उनके बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी तथा संघर्ष से केवल विनाश होता है, प्रकृति का विनाश, मानवता व मानवता के मूल्यों का विनाश, ज्ञान का विनाश, विज्ञान का विनाश और विनाश होता प्राणी मात्र का........।


डा मनु - परन्तु ब्रह्मदेव! आपने मुझे किस लिए याद किया?


ब्रह्मदेव - हम चाहते हैं कि तुम पृथ्वी पर हो रहे विज्ञान के दुरुपयोग को रोको। ताकि पृथ्वी पर होने वाले काल के भीषण विनाश के ताण्डव को रोका जा सके।


डा मनु - परमपिता, मैंने तो सुना है कि इस ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी होता है, सब आपकी आज्ञा अनुसार ही होता है। आप ही सबके भाग्य विधाता है। अब यदि आपने पृथ्वी और पृथ्वी वासियों के भाग्य में यह विनाश ही लिखा है तो भला मैं उसे किस प्रकार बदल सकूँगा?


ब्रह्मदेव - मैं तुमसे एक प्रश्न करता हूँ, पुत्र......।


डा मनु -  (किन्चित उलझन के साथ) कैसा प्रश्न ब्रह्मदेव!?


ब्रह्मदेव - तुमने पृथ्वी पर अपनी सहायता के लिए बहुत से यंत्रों का सृजन किया है। तुम उनके बारे में क्या बता सकते हो?


डा मनु - (उत्साहित होकर) उनके बारे में तो मैं सब कुछ पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि वह किस समय क्या कार्य करेंगे, किस प्रकार कार्य करेंगे, कितने समय तक कार्य करेंगे आदि आदि.....।


ब्रह्मदेव - परन्तु यदि में तुम्हारे उन यंत्रों के ऊर्जा स्रोत बदल दूँ, उनमें लगे विभिन्न उपकरणों को बदल दूँ, तो क्या तब भी तुम इसी विश्वास के साथ उनके बारे में कुछ कह सकोगे?


डा मनु - तब तो शायद असम्भव हो जाएगा......।


ब्रह्मदेव - आज पृथ्वी पर भी यही हो रहा है। जो वायु प्राणदायी थी, आज प्राणाहारी बन चुकी है। जल, जो जीवन दायक था, आज जीवन नाशक बना हुआ है। (अत्यंत दुखी होकर) तुम मनुष्य तो यान्त्रिक प्रबन्ध करके कुछ समय ओर इनके दुष्परिणामों से स्वयं को बचा कर लोगे, परन्तु दूसरे प्राणी तो तड़प-तड़पकर दम तोड़ रहे हैं। उन्होंने तो तुमसे, तुम्हारे विज्ञान से कुछ भी नहीं माँगा था। फिर उन्हें किस बात का दण्ड......??? 

(ब्रह्मदेन का स्वर अत्यन्त करुण हो जाता है) 

यह समूची पृथ्वी मेरी समस्त रचनाओं में अनमोल है......और उससे भी महत्वपूर्ण हैं इस पर वास करने वाले प्राणी......। मैं इनकी यह दुर्दशा देखकर अत्यन्त दुखी हूँ!


डा मनु - परन्तु ब्रह्मदेव! मैं इसे किस प्रकार रोक सकता हूँ? कृपया इसका उपाय भी बताइए!


ब्रह्मदेव - इसका तो मात्र एक ही उपाय है कि तुमने जो ज्ञान, जो विज्ञान पृथ्वी पर बिखेरा है, उसे समेट लो, छीन लो उन मनुष्यों से जो उसका सदुपयोग नहीं कर सकते.......। विज्ञान कोई खिलौना नहीं है, पुत्र! विज्ञान तो ज्ञान प्राप्ति का अमोघ अस्त्र है। धन प्राप्ति के लिए इसका प्रयोग सर्वथा दुरुपयोग है। विज्ञान का विनाशकारी दुरुपयोग......।


डा मनु - परन्तु भगवन! मैं अब उसे वापस कैसे ले सकता हूँ? और फिर क्या ऐसा करने से मैं संसार में स्वार्थी नहीं कहलाऊँगा??


ब्रह्मदेव - (तेज स्वर में) परन्तु यदि यह सब न रोका गया तो क्या तुम बचा सकोगे अपने इस ज्ञान को, विज्ञान को? साकार कर सकोगे अपने उन सपनों को जिन्हें तुम देख रहे हो अपने और अपनी भावी पीढ़ी के भविष्य के लिए, मानवता के भविष्य के लिए? क्या झुठला सकोगे इस सत्य को कि सृष्टि के उस महाविनाश के उत्तरदायी तुम और केवल तुम होगे? और झुठला सकोगे इस सत्य को कि तुमने केवल अपनी मानसिक तृप्ति के लिए सम्पूर्ण जगत को बलिवेदी पर रख दिया......।


(ब्रह्मदेव अंतर्ध्यान हो जाते हैं और डॉक्टर मनु अपने चेहरे को दोनों हाथों में छुपा कर पीड़ा भरे स्वर में जोर चिल्लाते हैं)


डा मनु - नहीं.....नहीं, यह नहीं हो सकता.....नहीं हो सकता.....।


दृश्य ३


[प्रयोगशाला का वही दृश्य, सब कुछ व्यवस्थित क्रम से चल रहा है। कुछ ही क्षणों पश्चात डॉक्टर मनु उसी दीन-हीन अवस्था में प्रयोगशाला के मध्य प्रकट होते हैं और प्रयोगशाला में चारों ओर एक डरी-सहमी सी दृष्टि से देखते हैं। फिर उनके खोए-खोए से कदम एक दिशा में बढ़ते हैं। वे हाथों में एक उपकरण को उठाते हैं, उसे उलट-पलट कर देखते हैं और पटक देते हैं। फिर दूसरे उपकरण को छूते हैं परन्तु रोते हुए एकदम पीछे घूम जाते हैं और दोनों हाथों में अपना चेहरा छुपाकर घुटनों के बल पर फर्श पर गिर जाते हैं।]


डॉक्टर मनु - [चीखते हुए] नहीं, ब्रह्मदेव नहीं.....यह नहीं हो सकता, नहीं हो सकता ब्रह्मदेव......!


[उसी समय उनके कानों में एक आवाज गूँजती है]


आवाज - डा मनु, तुम्हारा जीवन, तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारा विज्ञान इस संसार के उत्थान के लिए है। यदि आज तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारा विज्ञान ही इस संसार के पतन का कारण बन रहा है, तो समेट लो इसे और इस मानव लोक को उस महाविनाश का ग्रास बनने से बचाकर प्राणी मात्र की उन भावी पीढ़ियों को एक ऐसा सुन्दर और पुष्ट संसार भेंट करो, जिसमें जीने वाला प्रत्येक प्राणी निरन्तर उन्नति के पथ पर अग्रसर होते हुए ज्ञान और विज्ञान की उन ऊँचाइयों को स्पर्श करें जिन्हें आज तुम पाना चाहते हो......हो सकता है उस समय तुम ना रहो परन्तु तुम्हारी वे भावी पीढियाँ तुम्हें सदैव अपने बीच अनुभव करेंगी। उसी से तुम्हें आत्मतुष्टि प्राप्त होगी.............तो हे मनु! उठो और महाकाल के बढ़ते उन दूषित कदमों को मोड़ दो! ताकि ब्रह्मदेव की इस अनोखी और अनमोल रचना 'पृथ्वी' की रक्षा हो सके। हाँ डॉक्टर मनु, इसकी रक्षा करो.....रक्षा करो! इसकी रक्षा करो.....!!!


[ डॉक्टर मनु धीरे-धीरे चेहरे से अपने हाथों को हटाते हैं और देर तक एकटक शून्य में देखते रहते हैं। फिर दृढ़ता के साथ अपने दोनों हाथों को ऊपर उठाकर कठोर स्वर में कहते हैं]


डॉक्टर मनु - हे परमपिता! मैं वचन देता हूँ, आपकी यह अनुपम-अनमोल रचना युगों-युगों तक जियेगी और यूँ हीं चलती रहेगी। किसी महाविनाश की छाया तक मेैं इसके पास से भी नहीं गुजरने दूँगा। मानवता बारम्बार इसकी रक्षा के लिए बलिदान होती रहेगी, ब्रह्मदेव......(मध्यम पड़ते स्वर में) बलिदान होती रहेगी..........।


          पर्दा गिर जाता है।

                   ****

Saturday 3 July 2021

चिंकू-टू, द फ्लाइंग डिटेक्टिव

प्रोफेसर एक्स, लैबोरेटरी में किसी प्रयोग में व्यस्त थे। उनके सहयोगी रमन दूसरे विद्यार्थियों को कवर कर रहे थे। अतः प्रोफेसर एक्स अपने आसपास की सभी गतिविधियों से निर्पेक्ष अपने कार्य को उसके परिणाम की ओर बढ़ा रहे थे। उसी समय पुलिस इन्स्पेक्टर ने दो कॉन्स्टेबलों के साथ लैबोरेटरी में प्रवेश किया, तो सभी की दृष्टि उस ओर उठ गई। परन्तु प्रोफेसर को इसका भान तक न हुआ।इन्स्पेक्टर ने आगे बढ़कर प्रोफ़ेसर का कन्धा पकड़ते हुए कहा - "सर......!"

- "रमन से पूछो!" प्रोफ़ेसर ने बिना पीछे मुड़े ही कह दिया। 

परन्तु इन्स्पेक्टर के हाथ का दबाव निरन्तर बढ़ता जा रहा था जिससे प्रोफ़ेसर कुछ विचलित हुए और थोड़ा झुँझलाकर पीछे मुड़ते हुए बोले - "तुम लोग क्यों बार-बार मुझे डिस्टर्ब........अरे
इन्स्पेक्टर, आप यहाँ!? आज आपका कोई मुल्जिम भागकर इस ओर आ गया क्या? यदि आपको ऐसा संदेह है तो कॉलेज के दूसरे कमरों में खोजो भई......यहाँ लैबोरेट्री में आकर भला मुल्जिमम क्या करेगा।" प्रोफेसर ने हँसते हुए कहा।

- "परन्तु मुल्जिम तो यहीं है।"

- "ठीक है, फिर यहाँ खोज लीजिए।" अपने उपकरण की ओर घूमते हुए प्रोफ़ेसर ने लापरवाही के साथ कहा।

- "आपके नाम का गिरफ्तारी वारन्ट है, चलिए.......।"

इस बार प्रोफ़ेसर चौंके - "क्या बकते हो इंस्पेक्टर?"

- "आप पर कॉलेज का रिकॉर्ड नष्ट करने और लेबोरेट्री के कीमती उपकरण चुराने का आरोप है......और यह रहा गिरफ्तारी वारन्ट......।"

इससे पहले कि प्रोफेसर कुछ और बोलते इन्स्पेक्टर ने हथकड़ी लगा दी और फिर अपने साथ गाड़ी पर बैठाकर पुलिस स्टेशन की ओर रवाना हो गया।

पुलिस गाड़ी के जाते ही रमन भी लैबोरेट्री से बाहर आया और प्रोफेसर की गाड़ी लेकर कुछ ही देर में प्रोफ़ेसर की जमानत का प्रबन्ध करके पुलिस स्टेशन पहुँच गया। 

पुलिस स्टेशन से निकलकर प्रोफेसर बिना रमन से कुछ बोले सीधे कॉलेज पहुँचे और प्रिन्सिपल के सामने अपना इस्तीफा पटक दिया। गुस्से से चेहरा तमतमा रह था तथा आँखों से क्रोध की ज्वाला निकल रही थी। 

फिर गरजते हुए बोले - "यही चाहते थे ना तुम.......मैं जा रहा हूँ। परन्तु बहुत जल्द लौटने के लिए.........।"
 
ऑफिस से निकल कर प्रोफेसर एक्स सीधे तीर की भाँति घर पहुँचे और घर के सभी सदस्यों को चेतावनी देकर कि जब तक वे स्वयं लैबोरेट्री का द्वार खोलकर बाहर नहीं आते, तब तक घर का कोई भी सदस्य अथवा कोई अन्य व्यक्ति उन्हें डिस्टर्ब करने का प्रयास ना करे। चाहे कितना भी समय बीत जाए, वह घर के ऊपरी तल पर बनी अपनी प्रयोगशाला में घुस गए और द्वार अन्दर से बन्द कर लिया।

प्रोफेसर एक्स प्रोफ़ेसर वाय से सीनियर थे। प्रोफ़ेसर वाय को उनके सीनियर होने और अत्यधिक सम्मान होने के कारण उनसे बहुत इर्ष्या थी। वह सदैव उन्हें गलत साबित कर नीचा दिखाने के उपाय खोजता रहता था। कुछ ही दिन पहले जब प्रिंसिपल पद के लिए उन्हें चुना जाने वाला था तो प्रोफेसर वाय अपनी धोखाधड़ी और मक्कारी के बल पर स्वयं प्रिंसिपल बन बैठा। 

प्रोफ़ेसर एक्स तो इस असह्य घटना को भी लगभग भुलाकर फिर अपने कार्य में जुट गए थे, परन्तु आज जब उसने नीचता की सभी सीमाओं को लाँघ दिया तो वे भी आपे से बाहर हो गए। उनका हृदय बदले की भावना से भर उठा। 

इस समय प्रोफेसर एक्स अपने लैबोरेट्री में बड़ी ही बेचैनी की स्थिति में इधर-उधर घूम रहे थे। कानों में इंस्पेक्टर के शब्द बराबर गूँज रहे थे और ह्रदय में तीर की भाँति चुभ रहे थे। वे काफी देर तक इसी प्रकार घूमते रहे और अंत में एक कुर्सी पर बैठ गए। सिर मेज पर पटक दिया। उन्हें न तो अपनी पदोन्नति नहीं होने का कोई दुःख था, न ही नौकरी छोड़ने का....। उन्हें दुःख केवल अपना सम्मान चौपट हो जाने का था। इसी क्षण उन्होंने निर्णय लिया कि जब तक वह अपना खोया सम्मान पुनः प्राप्त नहीं कर लेते तब तक लैबोरेट्री के बाहर कदम नहीं रखेंगे। 

उन्होंने अपना सिर ऊपर उठाया, चेहरे पर दृढ़ता की झलक थी। उठे और उठकर लैबोरेट्री से संलग्न बाथरूम में घुस गए। थोड़ी देर में वे तरोताजा होकर बाहर निकले। एक बार प्रणायाम किया और बड़े ही शान्त चित से एक कुर्सी पर बैठ गए।

कई घंटे बीत गए परन्तु कोई ऐसा उपाय नहीं सूझा जिससे उनकी समस्या का समाधान हो सके। वह कभी उठकर चहल-कदमी करने लगते तो अभी कोई किताब उठाकर उसके प्रष्ठों पर कुछ ढूँढते...…कभी हवा में कोई मॉडल बनाते तो कभी कम्प्यूटर पर......कभी कागज पर कोई रेखाचित्र बनाते और फिर कम्प्यूटर द्वारा उसकी और अपने विचारों की सम्भावना पर विचार करते। परन्तु असंतुष्टि के भाव लिए फिर कुर्सी पर बैठ जाते और फिर कुछ नया सोचने की प्रयास करते।

अचानक एक आवाज ने उनकी इस चिन्तनधारा को रोक कर दिया- ची-ची-ची-ची-चूँ-चूँ-चीं-चीं.......उनकी दृष्टि एकदम लैबोरेट्री के रोशनदान की ओर घूम गई। वहाँ एक छोटी चिड़िया काफी देर से बैठी थी और प्रोफेसर जोकि अपनी ही धुन में खोए हुए थे, उनका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करना चाहती थी।

प्रोफेसर रोज सुबह लैबोरेट्री के बाहर हल्की धूप में बैठकर अपना कार्य करते थे। इसी बीच वहाँ कुछ चिड़ियाँ भी आ जातीं थीं, तो वह कुछ चुग्गा उन्हें डाल देते थे। इस प्रकार उन चिड़ियों से उनकी अच्छी मित्रता चल रही थी। आज जब चिड़ियों को प्रोफेसर बाहर दिखाई न पड़े तो शायद बाकी चिड़ियाँ तो प्रतीक्षा करके चली गई परन्तु यह एक चिड़िया उन्हें खोजते हुए यहाँ तक आ गई। 

प्रोफेसर उसे बहुत प्यार करते थे। इसका कारण था, जब वह पहली बार दूसरी चिड़ियों के साथ उनके पास आई थी तो बहुत छोटा बच्चा ही थी। प्रोफेसर ने उसे पकड़कर प्यार किया और नाम रखा था "चिंकू"।

- "अरे चिंकू.......!"  प्रोफेसर ने उसे देखते ही कलाई पर बँधी घड़ी पर नजर डालते हुए कहा।

नौ बज चुके थे। अर्थात रात बीत कर दिन का भी काफी चढ़ चुका था। चिंकू उछलकर उनके कंधे पर बैठ गया और एक बार फिर "चीं-चीं-चूँ-चूँ....." की टेर लगा दी। मानो उसने पूछा हो कि आज बाहर क्यों नहीं आये।

- "हमारी विवशता है, चिंकू। हम अभी बाहर नहीं जा सकते।" प्रोफेसर ने चिंकू को पकड़ कर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा।

फिर अपने टेबल पर अनाज के दाने डाल दिये। चिंकू फुदक-फुदक कर उन्हें खाने लगा। प्रोफेसर कुर्सी पर बैठे उसे निहार रहे थे। तभी उनके दिमाग में विचार कौंधा  कि क्या चिंकू उनके लिए एक डिटेक्टिव का कार्य नहीं कर सकता........?

बस फिर क्या था, उन्होंने प्लानिंग शुरू कर दी। पहले सोचा की एक माइक्रोफोन युक्त ऐसा ट्रांसमीटर बनाया जाए जो चिंटू के पंखों में छिप जाए। परन्तु इसकी रेंज और उससे प्राप्त आवाजों को पहचानने की समस्या के आगे यह योजना असफल रही। फिर नयी योजना बननी आरम्भ हुई........। 

इसी प्रकार योजनाएं बनती रही और बिगड़ती रहीं। दो दिन और बीत गये। इस बीच चिंकू भी उनके साथ लेबोरेट्री में ही था। प्रोफेसर खाने के नाम पर कुछ गोलियों और मेवों का प्रयोग करते और चिंकू अनाज के दाने चुगता, इधर उधर उड़ता-फुदकता रहता। प्रोफेसर कुछ थक जाते तो भाँति-भाँति से उनका मनोरन्जन करता, बातें घड़ता और फिर चुपचाप पंखों में सर छुपाकर बैठ जाता। 

तीसरे दिन जब प्रोफ़ेसर निराशा की स्थिति में इधर-उधर घूम रहे थे तो मस्तिष्क में आया कि चिंकू के बजाय वे स्वयं चिंकू के जैसा ही एक फ्लाइंग रोबोट क्यों न बनायें.......!

इतना सोचना था कि एक क्षण में ही पूरी योजना उनके मानस पटल पर घूम गई और फिर पूरे दस दिन और रात के अथक परिश्रम के बाद चिंकू का जुड़वा भाई चिंकू-टू अपने प्रथम परीक्षण के लिए तैयार था।

 चिंकू-टू एक अत्यन्त हल्की प्लास्टिक से निर्मित चिंकू का प्रतिरूप था। जो चिंकू की भाँति उड़ सकता था तथा चल-फिर सकता था। प्रोफेसर ने उसे आँखों के स्थान पर दो सूक्ष्म कैमरे तथा कानों के स्थान पर अत्यन्त सम्वेदनशील तथा सुक्ष्म माइक्रोफोन दिये थे। ऊर्जा के लिए उसके भीतर एक शक्तिशाली बैटरी थी तथा इसके पंखों में सौर ऊर्जा ग्रहण करने के लिए सौर सेल भी लगे थे। शेष सारा शरीर एक शक्तिशाली ट्रान्समीटर था। जो कैमरा व माइक्रोफोन से प्राप्त संकेतों को रेडियो संकेतों में परिवर्तित करके पूँछ जोकि एक शक्तिशाली एंटीना का कार्य करती थी, के द्वारा वायुमण्डल में प्रेषित कर देता। जिन्हें प्रोफेसर लेबोरेटरी की छत पर लगे विशालकाय एंटीना पर प्राप्त करके रिसीवर पर देख व सुन सकते थे। इसका अंतिम नियन्त्रण प्रोफेसर रिमोट व कम्प्यूटर की मदद से कर सकते थे।

इसका पहला परीक्षण चिंकू के साथ होना था। अतः प्रोफेसर ने उसे टेबल पर रखा, फिर चिंकू को बुलाया और उसके सामने टेबल पर ही छोड़ दिया। उसे देखते ही पहले तो चिंकू ने "चीं-चीं-चुँ-चुँ...." कर शोर मचाया परन्तु चिंकू-टू के शरीर में कोई हलचल न होने पर फुदककर उसके पास गया और उसे चोंच मारने लगा। इसी समय प्रोफेसर ने, जोकि अलग कुर्सी पर बैठे यह प्रहसन देख रहे थे, मुस्कुराते हुए हाथ में पकड़े रिमोट का बटन दबा दिया। तुरन्त ही चिंकू-टू भी सक्रिय गया और उसने भी चिंकू की भाँति शोर मचाया। फुदककर पंख फड़फड़ाये और फिर लैबोरेटरी के अन्दर सफलतापूर्वक उड़ने लगा।

चिंकू भी साथ-साथ ही उड़ रहा था। दोनों में इतनी समानता थी कि एकबार प्रोफेसर को भी ध्यान नहीं रहा कि वह कौन से चिंकू को कन्ट्रोल कर रहे हैं। इस धोखे का परिणाम हुआ कि चिंकू-टू दीवार से टकराया और गिर पड़ा।

प्रोफ़ेसर की आँखों में सफलता की स्पष्ट चमक थी। पहला परीक्षण पूरी तरह सफल रहा। उन्हें विश्वास हो गया कि जब चिंकू ही नहीं पहचान सका कि वह किसी जीवित चिड़िया के साथ नहीं, एक मशीनी चिड़िया के साथ खेल रहा है तो कोई और क्या पहचानेगा। उन्होंने तुरन्त चिंकू-टू के खुले आकाश में परीक्षण की तैयारी आरम्भ कर दी।

थोड़ी देर बाद चिंकू-टू अकेले ही लैबोरेट्री के रोशनदान से निकलकर खुले आकाश में उड़ान भरा था और प्रोफ़ेसर उसकी आँखों से बाहर की दुनिया का दर्शण लैबोरेट्री में रखे रिसिवर के स्क्रीन पर कर रहे थे।

प्रोफ़ेसर के निर्देशानुसार उड़ते हुए चिंकू-टू रमन के घर पहुँचा। एक साधारण चिड़िया की भाँति उसने खिड़की के द्वारा एक कमरे में प्रवेश किया। जहाँ रमन अभी तक बिस्तर में पड़े नींद का आनन्द ले रहे थे। पहले चिंकू-टू ने पूरे कमरे में दृष्टि घुमाई। अर्थात लैबोरेट्री में प्रोफेसर ने अपने स्क्रीन पर पूरे कमरे का निरीक्षण किया। फिर चिंकू-टू रमन के हाथ में चोट मारने लगा, परन्तु रमन के न जागने पर उसने सोच से एक घातक वार किया। जिसने हाथ में घाव हो गया और रक्त बहने लगा। रमन झुँझलाकर कर उठे और जैसे चिन्कू-टूू को पकड़ने के लिए झपटे, टेलीफोन की घन्टी गूँज उठी। उन्होंने चिंकू को घूरते हुए फोन उठाया तो एकदम आवाज आई - "गुड मॉर्निंग रामन......।"

- "क....कौन, प्रोफेसर!!!"

- "अभी भी नींद नहीं खुली क्या?"

- "न...नींद! आपको कैसे पता कि मैं सो रहा था!?

- "हमें तो यह भी पता है कि तुम पायजामा पहने खड़े हो और फोन तुमने अपने दाँये कान पर लगाया है। वैसे तुम्हारे बाँएं हाथ से बहने वाला रक्त तुम्हारे सोने का अच्छा प्रमाण है।"

- "व्हाट.....यू मीन.....!?!?!?

- "यह मीन-वीन बाद में करना, अभी तुम तुरन्त यहाँ चले आओ।"

बीस मिनट पश्चात ही रमन लैबोरेट्री में थे। प्रोफेसर एक्स ने एक पल भी व्यर्थ गवाँए बिना रमन को अपने नये आविष्कार की संपूर्ण जानकारी दी।
थोड़ी ही देर बाद रमन के हाथ कम्प्यूटर की-बोर्ड पर थे और चिंकू-टू एक बार फिर खुले आकाश में उड़ान भर रहा था। प्रोफेसर रिसीवर स्क्रीन के दृश्यों के अनुसार रमन को आवश्यक निर्देश दे रहे थे। 

प्रोफेसर सबसे पहले कॉलेज लेबोरेट्री से चोरी हुए उपकरणों के संबंध में जानकारी एकत्र करना चाहते थे। वैसे रमन ने इसके बारे में बहुत कुछ पहले ही बता दिया था, फिर भी एक बार वे स्वयं लेबोरेट्री का गहन निरिक्षण करना चाहते थे। अतः चिंकू-टू इसबार सीधे कॉलेज पहुँचा। लेबोरेट्री का द्वार तो बंद था परन्तु एक छोटी खिड़की में से प्रवेश मिल गया। तब उसने अपनी पूर्ण नियन्त्रित दृष्टि द्वारा लैबोरेट्री में स्थित प्रत्येक छोटी बड़ी चीज को घूरना आरम्भ कर दिया। परन्तु वहाँ कोई विशेष बात सामने नहीं आई। सिवाय इसके कि लगभग एक लाख रुपये मूल्य के महत्वपूर्ण उपकरण और अन्य उपयोगी सामग्री वहाँ से गायब थी। उसी समय "चर्र..." की आवाज के साथ लैबोरेट्री का द्वार खुला और दो व्यक्ति बातचीत करते हुए अन्दर प्रविष्ट हुए। एक कह रहा था, "पता नहीं, बस इतना ही सुना है कि यहाँ से जाकर सीधे अपनी लैबोरेट्री में चले गए थे और आज तक लैबोरेट्री का द्वार ज्यों का त्यों बंद है।"

- "आश्चर्य है! उन्हें किसी ने भी बाहर निकालने का प्रयास नहीं किया....... कुछ भी हो ऐसे नेक और भले व्यक्ति पर ऐसा घृणित आरोप लगाकर प्रिंसिपल ने अच्छा नहीं किया......।" दूसरा बोला

- "पता है इस समय प्रिंसिपल कहाँ है?"

- "कहाँ?

- "पता चला है कुछ मेहमानों के साथ घर में मीटिंग चल रही है।"

इतना सुनते ही चिंकू-टू फुर्र से उड़कर बाहर आया और पहुँच गया प्रिंसिपल प्रोफेसर वाय के घर.....। फिर उसने एक के बाद एक सभी कमरों में खोजबीन शुरू कर दी। किन्तु कुछ भी हाथ न लगा। अंत में वह ऊपरी तल पर पहुँचा जहाँ केवल एक कमरा था। उसकी सभी खिड़कियों रोशनदानों में शीशे चढ़े थे। द्वार भी बन्द था। काफी देर झक मारने के पश्चात भी जब उसे कमरे में प्रवेश ना मिला तो थक-हार कर वह एक खिड़की के पास गमले में लगे पौधे की डाल पर बैठ कर झूलने लगा। इसी समय उसकी दृष्टि खिड़की के शीशे पर पड़ी जो शायद किसी पत्थर आदि की चोट से चटक गया था। परन्तु काँच के छोटे-छोटे टुकड़े अभी भी अपने स्थान पर फँसे हुए थे। चिंकू-टू फुदक कर चटके हुए शीशे पर चिपक कर बैठ गया। फिर उसने अपनी चोंच के प्रहार से काँच के छोटे-छोटे टुकड़ों को बाहर निकाल दिया और किसी प्रकार अपने घुसने योग्य मार्ग बना लिया। भीतर पहुँच कर वह खिड़की की दीवार से चिपक कर इस प्रकार बैठ गया कि वह पूरे कमरे मैं अपनी दृष्टि घुमा सके। इस समय उसने देखा कि कमरे में प्रोफ़ेसर वाय के साथ वहाँ दो अन्य व्यक्ति वार्तालाप कर रहे हैं। प्रोफ़ेसर वाय उन दोनों को संबोधित करते हुए कह रहे थे, "आप लोग बिल्कुल निश्चिंत होकर अपने प्रयोग करते जाइए तथा जो भी सामग्री चाहिए आप बस उसकी सूचना मुझे दे दीजिए। मैं जल्दी से जल्दी आपके इस कार्य को पूरा देखना चाहता हूँ।"

- "ठीक है सर, यह लीजिए.....।" उनमें से एक व्यक्ति ने एक बैग प्रोफेसर वाय की ओर बढ़ाते हुए कहा। 

- "पूरे सत्तर हजार हैं। पचास हजार पिछले तथा बीस हजार नए काम का एडवांस.....।"

- "बोलो क्या-क्या चाहिए?"

- "यह लीजिये, लिस्ट तैयार सर!"

- "ठीक है, मैं दस दिन में इसका प्रबंध करता हूँ। बाकी बातें भी तभी होंगी।" सूची पर एक दृष्ठि डालते हुए प्रोफेसर-वाय ने कहा और उठ खड़े हुए।

चिंकू-टू भी वहाँ से निकलकर वापस प्रोफेसर-एक्स के पास पहुँच गया। लैबोरेट्री में घुसते ही चिंकू ने उसे देख लिया और "चूँ-चूँ-चीं-चीं" करके शोर मचाने लगा। परन्तु जब प्रोफेसर ने उसे अनदेखा कर चिंकू-टू को पकड़ लिया तो वह तेजी से चहकते हुए प्रोफेसर के सर व कंधे पर फुदकने लगा। तब प्रोफेसर-एक्स ने चिंकू-टू को मेज पर छोड़ा और उसे पकड़ कर बातें करने लगे.......।

Saturday 12 June 2021

बूढ़ी माई

दूर विशाल महासागर के बीच एक छोटा सा किन्तु बड़ा ही शान्त और रमणीक टापू था। पूरा टापू अनेक प्रकार के सुंदर हरे-भरे पेड़-पौधों से भरा हुआ था। जिनके फलों और फूलों की मन को मुग्ध कर देने वाली सुगन्ध सदैव चारों ओर फैली रहती थी। टापू पर बीचो-बीच एक छोटा सा मीठे पानी का तालाब था। जो सदैव स्वच्छ जल से लबालब भरा रहता था।

पक्षी तो वहाँ अनेक प्रकार के उड़ते तथा कलरव किया करते थे परन्तु पशुओं में केवल कुछ हाथी, बन्दर और गाय ही दिखाई पड़ती थीं। इन सब की कुल संख्या भी मात्र कुछ सौ के लगभग ही थी। सभी के बीच असीम प्रेम था। सभी एक दूसरे के सहायता के लिए सदैव जान पर खेलने के लिए तत्पर रहते थे। शायद यह बात सभी ने अच्छी तरह समझ ली थी कि अब उन सभी का उस छोटे से टापू पर ही साथ-साथ रहना भी है और मरना भी......तो फिर क्यों ना जब तक जीवित हैं, हिल-मिलकर प्रेम से जियें। क्योंकि टापू के चारो ओर दूर क्षितिज तक केवल पानी ही पानी दिखाई पड़ता था। 

टापू पर अधिकान्शतः वर्षा का मौसम रहता था। वर्षा भी विचित्र ही होती थी। न बादल न बादलों की गरज और न बिजली की चमक....बस खिली धूप में अचानक पानी बरसा पड़ता.....और केवल पानी ही नहीं, कई बार तो पानी के साथ-साथ बड़े बड़े शंख, बहुमूल्य मोती, सीपी, घोंघे और जीवित मछलियाँ भी बरस पड़तीं। होता यह था कि जब दूर क्षितिज के पास से आकाश को छूती कोई लहर समुद्र में उठती तो मार्ग में अचानक आये टापू से टकराकर तेजी से ऊपर उठती और अपने साथ लायी हुई सभी वस्तुओं के साथ टापू पर ही बरस पड़ती। 

इन सभी पशु-पक्षियों के साथ-साथ एक वृद्धा भी वहाँ रहती थी। चाँदी के समान चमकते सफेद बाल, दूध जैसे सफेद, हाथ के बुने रेशमी वस्त्र पहने वह अधिकतर तालाब के पास अपनी सुन्दर झोपड़ी के बाहर चरखा कातने में व्यस्त रहती थी। साथ ही एक गीत भी गुनगुनाती रहती थी -

- "चल-चल रे चरखवा तू शोर न मचा,
   अभी-अभी सोया है मेरा मुन्ना राजा,
   जागेगा तो रोएगा और होयेगा खफा,
   शामत तेरी आएगी बचकर जाएगा कहाँ........"

जब वह अपना चरखा चलाती तो शंख सीप और मोती जड़े उसके विचित्र चरखे से एक प्रकार का मधुर संगीत निकलता था, जिसे सुनकर टापू के अनेक पशु-पक्षी आकर उसके पास जमा हो जाया करते थे तथा घंटो-घंटो मंत्रमुग्ध से बैठकर उसका वह गीत और चरखे का मधुर संगीत सुनते रहते। 

ये सभी पशु इस वीरान टापू पर कब और किस प्रकार पहुँचे यह तो कोई नहीं जानता परन्तु यह वृद्धा यहाँ किस प्रकार पहुंची, उसका एक दुखद वृत्तान्त है - 

लगभग तीस वर्ष पूर्व सभी प्रकार से सम्पन्न उसका हँसता-खेलता छोटा सा परिवार था। जिसमें उसका पति, पाँच वर्षीया बेटी और एक वर्षीय बेटा सम्मलित थे। उनका अपना काफी लम्बा-चौड़ा व्यापार था। फिर भी जब कभी समय मिलता, वे अपने छोटे से जहाज को लेकर समुद्र में दूर तक घूमने जाया करते थे। आसपास के टापूओं पर घूमते, जहाँ कई बार उन्हें प्रकृति की ओर से अनेक बहुमूल्य और सुंदर उपहार भी प्राप्त हो जाते।

उस दिन जब वे अपने उस दूध मुँहे बेटे को घर छोड़ कर समुद्र भ्रमण के लिए निकले तो मौसम बिल्कुल शान्त था। सुनहरी धूप खिली थी। धीमी-धीमी मदमस्त हवा के झोंके हृदय में नई उमंगे भर रहे थे। चमचमाती लहरों पर मछलियाँ नृत्य करती सी प्रतीत होती थीं। कुछ ही देर में उनका जहाज समुद्र में काफी दूर निकल आया तो वे डेक पर आ गए। गुलाबी फ्रॉक पहने उनकी बेटी खुशी से उछलती-कूदती किसी नन्ही परी जैसी लग रही थी तथा वे दोनों उसे देख-देखकर मन ही मन मुग्ध रहे थे।

अचानक चारों को एक अजीब सा सन्नाटा छाने लगा। बच्ची भी सुस्त होकर माँ की गोद में आ बैठी। पानी में मछलियाँ लुप्त हो गईं। सुनहरी धूप में कुछ कालिमा सी छाने लगी। हवाएं भी तीखी अनुभव होने लगीं। देखते ही देखते आकाश में काले-काले बादल घुमड़ने लगे। उन्होंने जल्दी से जहाज को वापस मोड़ा, परन्तु तीखी हवाओं ने कुछ ही देर में भयानक रूप धारण कर लिया। आकाश में बादल गरजने लगे और वे किनारे से अभी बहुत दूर थे। तभी उन्हें एक छोटा टापू दिखाई दिया तो उन्होंने शरण लेने के लिए जहाज को उधर ही बढा दिया। परन्तु टापू तक पहुँचने से पहले ही उनका जहाज एक भयानक चक्रवात में घिरकर नियंत्रण खो बैठा और फिर ऊँची-ऊँची लहरों पर उछलते-गिरते एक अपरिचित मार्ग पर बढ़ने लगा।
 
कई घंटे तक इसी प्रकार लहरों पर गिरते-पड़ते जहाज अचानक धमाके की आवाज के साथ किसी चट्टान से टकराया और जहाज के टुकड़ों के साथ-साथ वे भी दूर तक छिटक गये। 

काफी देर बाद जब उसे चेतना आयी तो उसने स्वयं को घास पर लेटे पाया। अंग-अंग में भयंकर पीड़ा हो रही थी। आसमान बिल्कुल साफ था। चारों ओर असीम निस्तब्धता छायी थी। तभी उसे बेटी और पति की याद आई तो वह झटके से उठ बैठी। चारों ओर एक विचित्र ही दृश्य था। अनेको पशु-पक्षी आँखों में गहरी सम्वेदना लिए हुए चारों ओर शोकाकुल से बैठे थे। उसे जीवित देखकर उनमें थोड़ी हलचल हुई। पास ही खड़े हाथियों ने एक दूसरे को सूँड से छुआ और फिर सूँड उठाकर अभिवादन किया। तभी उसकी दृष्टि खून में लथपथ पड़े पति पर पड़ी तो वह चीत्कार करते हुए उससे चिपट गई। उसे हिलाया डुलाया किन्तु उसमे जीवन का कोई चिन्ह नहीं था। तभी उसने देखा कि एक हाथी सूँड में उसकी नन्ही बेटी को उठाये तट की ओर से दौड़ा आ रहा है। लड़खड़ाती हुई वह उसकी और दौड़ी। काफी हिलाया-डुलाया, पेट दबा-दबा कर पानी निकाला परन्तु उसकी भी साँसे नहीं लौटीं तो वह फिर अचेत होकर वहीं लुढ़क गई।

कुछ देर बाद उसे फिर होश आया तो एक वृद्ध बन्दरिया कन्धे के पास बैठी धीरे-धीरे उसके बालों में उँगलियाँ चला रही थी। पास ही बैठी एक गाय रह-रहकर उसके पैरों को चाट रही थी। तो एक तोता उसके वक्ष पर उचक-उचक कर मुन्ना-मुन्ना की टेर लगा रहा था। शायद अचेतावस्था में वह मुन्ना-मुन्ना कहकर बड़बड़ा रही थी। उसी की नकल से उस तोते ने भी मुन्ना कहना सीख लिया था। अनेक हाथियों ने मिलकर जहाज के लगभग सारे अवशेष को टापू पर खींच लिया था। दूसरे अनेक पशु-पक्षी भी इधर उधर खड़े शायद उसकी चेतना लौटने की ही प्रतीक्षा कर रहे थे। उनके उस आगाध और निस्वार्थ प्रेम को देखकर एक पल के लिए वह अपना सारा दुःख भूल गई परन्तु अगले ही पल फिर से घुटनों में मुँह छुपा कर फूट-फूट कर रोने लगी। चारों ओर निराशा भरे सागर में इन अबोल जीवों का निश्छल प्रेम ही उसको डूबने से बार-बार रोक रहा था। बेटी व पति का अन्तिम संस्कार करने के बाद भी कई दिनों तक वह यूँ ही अर्द्धविक्षिप्त सी बैठी रोती रहती। 

महीनों बीत गए परन्तु वह सुबह से शाम तक गुमसुम तट पर बैठी इसी आशा में सागर को निहारती रहती कि कोई जहाज या नौका उधर से निकले तो वह अपने बच्चे के पास वापस लौट सके। सोते-जागते वह जहाँ भी रहती अनेक पशु-पक्षी उसके इर्द-गिर्द ही मँडराते रहते। मानो उसकी रखवाली में जुटे हों। कभी नारियल-कन्द-मूल-फल लाकर उसके पास रख देते तो कभी तरह तरह की चेष्टायें करके उसका ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास करते रहते। उस दिन नट्टू बंदर के दोनों छोटे-छोटे बच्चों की नटखट कलाबाजियाँ देखकर वह अचानक जोर से खिलखिला उठी तो मानो वर्षों से बन्द पड़े किसी मन्दिर में अचानक सैकड़ों घंटे बजे उठे हों। पास ही चर रहीं गायें जोर से रम्भा उठों। दो-तीन हाथी जोकि पास मँडरा रहे थे खुशी के मारे सूँड उठाकर जोर से चिंघाड़े तो अगले ही क्षण टापू के दूसरे छोर से उसका प्रत्युत्तर भी आ गया.......और कुछ ही देर में टापू के समस्त पशु-पक्षी वहीं एकत्र हो गए। 

भावविभोर होकर उसने उन्हें प्यार से पुचकारा तो एक हाथी ने किसी कोमल फूल की भाँति उसे सूँड में  लपेटकर उठाया और पीठ पर बैठा लिया। फिर मस्त मतवाली चाल बना कर ले चला उसे टापू की सैर कराने। साथ-साथ पूरा टापूवासी समुदाय भी हर्ष ध्वनि करते हुए चल रहा था।

दिनभर टापू पर घूमने के बाद उन्होंने तालाब के किनारे पड़ाव डाला। तब सभी ने अपनी-अपनी रुचि के स्वादिष्ट कन्दमूल-फल लाकर उसके आगे ढेर लगा दिया। उनके इस आत्मीयता भरे व्यवहार ने आज उसकी चिन्तन धारा को पूरी तरह मोड़ दिया। उसे लगा कि इतने समय से वह व्यर्थ ही अपने परिवार के वियोग में घुल रही थी। उस छोटे से परिवार को खोकर उसने तो इतने बड़े परिवार को पा लिया था। जिनके हृदय में निश्छल प्रेम के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं......। 

बस यहीं से आरम्भ हुआ उद्योग का एक नया पर्व.......जहाज के अवशेष से आवश्यकता का सामान चुना गया तथा तालाब के किनारे एक सुन्दर कुटिया तैयार हो गई। टापू पर हजारों की संख्या में फैले शहतूत के पेड़ों पर ढेर के ढेर रेशम के कोकून लटके थे। उन्हें एकत्र कर कातने के लिए एक चरखा बनाया गया। बहुमूल्य शंख, सीप और मोती जड़े रेशमी पर्दों व गद्दों से सजी उसकी कुटिया किसी महारानी के शयनगार से कम न थी।

फिर तो मानो समय को पंख लग गए। कई तोतों को उसने "माँ" बोलना सिखाना चाहा परन्तु वे "माई" कहने लगे। तीस वर्षों का लम्बा समय यूँ ही हँसते-गुनगुनाते गुजर गया। परन्तु उस रात मानो प्रलय ही आ आयी हो। शाम से ही आकाश काले-काले बादलों से पट गया था। सारी रात गरज-चमक भरा चक्रवात टापू को कम्पित करता रहा। कई हाथी रात भर बूढ़ी माई की कुटिया को घेरे खड़े रहे। मानो उसमें कोई अमूल्य कोष रखा था। जिसकी उन्हें इस भयंकर चक्रवात से रक्षा करनी थी।

भोर हुई तो चारों असीम शान्ति थी। आकाश बिल्कुल स्वच्छ था। जैसे कुछ हुआ ही न था। तभी पश्चिमी तट की ओर से एक हाथी की चिंघाड़ सुनाई दी और तुरन्त ही सब के सब उधर ही दौड़ पड़े। वह भी एक हाथी पर सवार होकर वहाँ पहुँची तो देखा कि सैनिक वेश में एक व्यक्ति लाइफ जैकेट में लिपटा पड़ा है। हिलाया-डुलाया, अभी साँसे शेष थीं। पेट से पानी आदि निकाला व जल्दी से एक जड़ी-बूटी लाकर उपचार किया। शीघ्र ही नाड़ी पलटने लगी।

- "मैं कहाँ हूँ......!?' चेतना आने पर उसने वहाँ का विचित्र दृश्य देखा तो अनायास ही यह प्रश्न उसके मुख से निकल पड़ा।

- "तुम जहाँ भी हो, अब सुरक्षित हो बेटा!" बूढ़ी माई ने उसे दुलारते हुए कहा।

- "परन्तु आप कौन हैं? और क्या सचमुच आप यहाँ इन सब के बीच अकेली ही है!?" 

वहाँ के उस विचित्र दृश्य से आश्चर्यचकित होते हुए उसने पुनः प्रश्न किया तो बूढ़ी माई ने आदि से अंत तक अपनी पूरी कहानी उसे सुना दी। जिसे सुनकर उसका सैनिक हृदय भी दहल गया। तब उसने अपना परिचय देते हुए बताया कि वह एक सैनिक है और एक छोटे सैन्य जहाज पर अपने साथियों के साथ काम पर निकला था। तभी रात के इस भीषण चक्रवात में घिर कर उनका जहाज डूब गया और चक्रवाती लहरों ने उसे उठाकर इस टापू पर पटक दिया है।

इसके पश्चात उसका जमकर आतिथ्य सत्कार हुआ। फिर एक छोटी नौका बनाई गई तथा लगभग सप्ताह भर की खाद्य सामग्री के साथ ढेरों बहुमूल्य उपहार देकर उसे उसके देश विदा किया गया। सैनिक के बहुत आग्रह करने के उपरन्त भी जब बूढ़ी माई ने टापू छोड़ने से साफ मना कर दिया तो वह उसके बिछुड़े बेटे को शीघ्र मिलाने का वचन देकर लौट गया।

इस घटना के लगभग एक माह बाद एक दिन अचानक टापू पर कोहराम सा मच गया। एक-एक करके सभी पशु-पक्षी बूढ़ी माई की कुटिया के आसपास एकत्र होने लगे। कारण जानने के लिए वह बाहर आई तो सभी ने उसे भीतर धकेल दिया। कुछ देर बाद उसने देखा कि वही सैनिक दस-बारह लोगों के साथ पुनः लौट आया है। उसके वक्ष में अचानक एक विचित्र सी बेचैनी होने लगी। ह्रदय जोर-जोर से धड़कने लगा। वह कुटिया के बाहर खड़ी उन सभी के बीच अपने नन्हे-मुन्ने बेटे को खोज रही थी। उसे आशा थी कि एक दिन वह सैनिक उसके बच्चे को लेकर अवश्य लौटेगा। तब वह अपने नन्हे-नन्हे पैरों से छमछम करता हुआ आएगा और "माँ माँ" कह कर उससे चिपट जाएगा। परन्तु वह तो इनके साथ नहीं है! फिर यह सैनिक इन सब को क्यों लेकर आ रहा है!! 

वह खड़ी यही सोच विचार कर रही थी कि तभी उसके कानों में मिश्री से मधुर स्वर सुनाई दिया, "माँ......"
तो वह झट से घूम कर पीछे-दाएँ-बाएँ मुन्ना-मुन्ना कहते हुए उसे ढूँढने लगी। तब सैनिक ने उसके कन्धे पकड़कर एक प्रौढ़ व्यक्ति की ओर संकेत करते हुए प्यार से कहा, "माँजी, आपका मुन्ना वहाँ नहीं, यह है। अब ये बड़ा हो चुका है। 

वृद्धा ने नजर उठा कर सामने खड़े व्यक्ति को देखा, वह बाहें फैलाए "माँ माँ...." पुकार रहा था।

वृद्धा ने अपने हाथों से धीरे से उसके चेहरे पर छुआ, आँखों को परखा, बदन पर हाथ फेरा और फिर जोर से "मुन्ना....मेरा बच्चा!!!" कहते हुए छाती से चिपका लिया। 

काफी देर बाद वात्शल्य का उमड़ता सागर थमा तो बूढ़ी माई के सभी सेवक अतिथियों के सत्कार में जुट गए। परन्तु एक मूक उदाशी के साथ।

खाना-पीना समाप्त हुआ तो सभी लोग बूढ़ी माई का सामान समेटने लगे।

- "यह क्या कर रहे हो तुम लोग?" बूढ़ी माई ने रुष्ट होते हुए पूछा।

- "क्यों, ये सब क्या साथ नहीं ले चलना है, माँ?"

- "साथ!!!....परन्तु कहाँ?!"

- 'हमारे साथ माँ, अपने घर...."

- "किन्तु मेरा घर तो यह टापू ही है। अब मैं इसे नहीं छोड़ सकती।"

- "नहीं माँ....मैं अब आपको इस जंगल में अकेले नहीं रहने दे सकता।"

- "नहीं बेटा....मैं अकेली कहाँ हूँ.....यहाँ तो मेरे इतने सारे बच्चे हैं और तू इसे जंगल बता रहा है!!!..."

- "ठीक है माँ, मैं इन सब को भी साथ ले जाऊँगा.....।

- "इन सबको!!!....ये पेड़, ये पौधे, ये मैदान, पहाड़ी, झरना....इन सबको कैसे और क्या-क्या ले जाएगा तू......ये सभी तो आपस में गुँथे पड़े हैं। इनमें से कोई एक भी बिछुड़ गया तो सारे मिट जाएंगे......।" 

बहुत समझाने-बुझाने के उपरन्त भी जब बूढ़ी माई ने टापू को छोड़ना स्वीकार न किया तो सभी ने वहीं धरना दे दिया। कई दिन तक एक दूसरे को मनाने के प्रयास चलते रहे। परन्तु अंत में सभी को बूढ़ी माई की इच्छा के आगे झुकना पड़ा। फिर सबने अनावश्यक परिश्रम न करने का आदेशात्मक सा निर्देश दिया तथा वस्त्र-भोजन आदि आवश्यकताओं का सभी सामान वहीं पहुँचाते रहने का संकल्प कर अश्रुपूरित विदाई ली। 

अपने सभी बच्चों के साथ तट पर खड़ी वह तब तक उनके जहाज को निहारती रही जब तक वह आँखों से ओझल न हो गया। कुछ देर बाद फिर से टापू पर उसका वही गीत व चरखे का मधुर संगीत गूँजने लगा -

"चल-चल रे चरखवा तू शोर न मचा,
 अभी-अभी लौटा है मेरा मुन्ना राजा,
 आएगा तो रोएगा और होएगा खफा,
 मुश्किल मेरी आएगी, कैसे मनाऊँगी बता......।"