Saturday 12 June 2021

बूढ़ी माई

दूर विशाल महासागर के बीच एक छोटा सा किन्तु बड़ा ही शान्त और रमणीक टापू था। पूरा टापू अनेक प्रकार के सुंदर हरे-भरे पेड़-पौधों से भरा हुआ था। जिनके फलों और फूलों की मन को मुग्ध कर देने वाली सुगन्ध सदैव चारों ओर फैली रहती थी। टापू पर बीचो-बीच एक छोटा सा मीठे पानी का तालाब था। जो सदैव स्वच्छ जल से लबालब भरा रहता था।

पक्षी तो वहाँ अनेक प्रकार के उड़ते तथा कलरव किया करते थे परन्तु पशुओं में केवल कुछ हाथी, बन्दर और गाय ही दिखाई पड़ती थीं। इन सब की कुल संख्या भी मात्र कुछ सौ के लगभग ही थी। सभी के बीच असीम प्रेम था। सभी एक दूसरे के सहायता के लिए सदैव जान पर खेलने के लिए तत्पर रहते थे। शायद यह बात सभी ने अच्छी तरह समझ ली थी कि अब उन सभी का उस छोटे से टापू पर ही साथ-साथ रहना भी है और मरना भी......तो फिर क्यों ना जब तक जीवित हैं, हिल-मिलकर प्रेम से जियें। क्योंकि टापू के चारो ओर दूर क्षितिज तक केवल पानी ही पानी दिखाई पड़ता था। 

टापू पर अधिकान्शतः वर्षा का मौसम रहता था। वर्षा भी विचित्र ही होती थी। न बादल न बादलों की गरज और न बिजली की चमक....बस खिली धूप में अचानक पानी बरसा पड़ता.....और केवल पानी ही नहीं, कई बार तो पानी के साथ-साथ बड़े बड़े शंख, बहुमूल्य मोती, सीपी, घोंघे और जीवित मछलियाँ भी बरस पड़तीं। होता यह था कि जब दूर क्षितिज के पास से आकाश को छूती कोई लहर समुद्र में उठती तो मार्ग में अचानक आये टापू से टकराकर तेजी से ऊपर उठती और अपने साथ लायी हुई सभी वस्तुओं के साथ टापू पर ही बरस पड़ती। 

इन सभी पशु-पक्षियों के साथ-साथ एक वृद्धा भी वहाँ रहती थी। चाँदी के समान चमकते सफेद बाल, दूध जैसे सफेद, हाथ के बुने रेशमी वस्त्र पहने वह अधिकतर तालाब के पास अपनी सुन्दर झोपड़ी के बाहर चरखा कातने में व्यस्त रहती थी। साथ ही एक गीत भी गुनगुनाती रहती थी -

- "चल-चल रे चरखवा तू शोर न मचा,
   अभी-अभी सोया है मेरा मुन्ना राजा,
   जागेगा तो रोएगा और होयेगा खफा,
   शामत तेरी आएगी बचकर जाएगा कहाँ........"

जब वह अपना चरखा चलाती तो शंख सीप और मोती जड़े उसके विचित्र चरखे से एक प्रकार का मधुर संगीत निकलता था, जिसे सुनकर टापू के अनेक पशु-पक्षी आकर उसके पास जमा हो जाया करते थे तथा घंटो-घंटो मंत्रमुग्ध से बैठकर उसका वह गीत और चरखे का मधुर संगीत सुनते रहते। 

ये सभी पशु इस वीरान टापू पर कब और किस प्रकार पहुँचे यह तो कोई नहीं जानता परन्तु यह वृद्धा यहाँ किस प्रकार पहुंची, उसका एक दुखद वृत्तान्त है - 

लगभग तीस वर्ष पूर्व सभी प्रकार से सम्पन्न उसका हँसता-खेलता छोटा सा परिवार था। जिसमें उसका पति, पाँच वर्षीया बेटी और एक वर्षीय बेटा सम्मलित थे। उनका अपना काफी लम्बा-चौड़ा व्यापार था। फिर भी जब कभी समय मिलता, वे अपने छोटे से जहाज को लेकर समुद्र में दूर तक घूमने जाया करते थे। आसपास के टापूओं पर घूमते, जहाँ कई बार उन्हें प्रकृति की ओर से अनेक बहुमूल्य और सुंदर उपहार भी प्राप्त हो जाते।

उस दिन जब वे अपने उस दूध मुँहे बेटे को घर छोड़ कर समुद्र भ्रमण के लिए निकले तो मौसम बिल्कुल शान्त था। सुनहरी धूप खिली थी। धीमी-धीमी मदमस्त हवा के झोंके हृदय में नई उमंगे भर रहे थे। चमचमाती लहरों पर मछलियाँ नृत्य करती सी प्रतीत होती थीं। कुछ ही देर में उनका जहाज समुद्र में काफी दूर निकल आया तो वे डेक पर आ गए। गुलाबी फ्रॉक पहने उनकी बेटी खुशी से उछलती-कूदती किसी नन्ही परी जैसी लग रही थी तथा वे दोनों उसे देख-देखकर मन ही मन मुग्ध रहे थे।

अचानक चारों को एक अजीब सा सन्नाटा छाने लगा। बच्ची भी सुस्त होकर माँ की गोद में आ बैठी। पानी में मछलियाँ लुप्त हो गईं। सुनहरी धूप में कुछ कालिमा सी छाने लगी। हवाएं भी तीखी अनुभव होने लगीं। देखते ही देखते आकाश में काले-काले बादल घुमड़ने लगे। उन्होंने जल्दी से जहाज को वापस मोड़ा, परन्तु तीखी हवाओं ने कुछ ही देर में भयानक रूप धारण कर लिया। आकाश में बादल गरजने लगे और वे किनारे से अभी बहुत दूर थे। तभी उन्हें एक छोटा टापू दिखाई दिया तो उन्होंने शरण लेने के लिए जहाज को उधर ही बढा दिया। परन्तु टापू तक पहुँचने से पहले ही उनका जहाज एक भयानक चक्रवात में घिरकर नियंत्रण खो बैठा और फिर ऊँची-ऊँची लहरों पर उछलते-गिरते एक अपरिचित मार्ग पर बढ़ने लगा।
 
कई घंटे तक इसी प्रकार लहरों पर गिरते-पड़ते जहाज अचानक धमाके की आवाज के साथ किसी चट्टान से टकराया और जहाज के टुकड़ों के साथ-साथ वे भी दूर तक छिटक गये। 

काफी देर बाद जब उसे चेतना आयी तो उसने स्वयं को घास पर लेटे पाया। अंग-अंग में भयंकर पीड़ा हो रही थी। आसमान बिल्कुल साफ था। चारों ओर असीम निस्तब्धता छायी थी। तभी उसे बेटी और पति की याद आई तो वह झटके से उठ बैठी। चारों ओर एक विचित्र ही दृश्य था। अनेको पशु-पक्षी आँखों में गहरी सम्वेदना लिए हुए चारों ओर शोकाकुल से बैठे थे। उसे जीवित देखकर उनमें थोड़ी हलचल हुई। पास ही खड़े हाथियों ने एक दूसरे को सूँड से छुआ और फिर सूँड उठाकर अभिवादन किया। तभी उसकी दृष्टि खून में लथपथ पड़े पति पर पड़ी तो वह चीत्कार करते हुए उससे चिपट गई। उसे हिलाया डुलाया किन्तु उसमे जीवन का कोई चिन्ह नहीं था। तभी उसने देखा कि एक हाथी सूँड में उसकी नन्ही बेटी को उठाये तट की ओर से दौड़ा आ रहा है। लड़खड़ाती हुई वह उसकी और दौड़ी। काफी हिलाया-डुलाया, पेट दबा-दबा कर पानी निकाला परन्तु उसकी भी साँसे नहीं लौटीं तो वह फिर अचेत होकर वहीं लुढ़क गई।

कुछ देर बाद उसे फिर होश आया तो एक वृद्ध बन्दरिया कन्धे के पास बैठी धीरे-धीरे उसके बालों में उँगलियाँ चला रही थी। पास ही बैठी एक गाय रह-रहकर उसके पैरों को चाट रही थी। तो एक तोता उसके वक्ष पर उचक-उचक कर मुन्ना-मुन्ना की टेर लगा रहा था। शायद अचेतावस्था में वह मुन्ना-मुन्ना कहकर बड़बड़ा रही थी। उसी की नकल से उस तोते ने भी मुन्ना कहना सीख लिया था। अनेक हाथियों ने मिलकर जहाज के लगभग सारे अवशेष को टापू पर खींच लिया था। दूसरे अनेक पशु-पक्षी भी इधर उधर खड़े शायद उसकी चेतना लौटने की ही प्रतीक्षा कर रहे थे। उनके उस आगाध और निस्वार्थ प्रेम को देखकर एक पल के लिए वह अपना सारा दुःख भूल गई परन्तु अगले ही पल फिर से घुटनों में मुँह छुपा कर फूट-फूट कर रोने लगी। चारों ओर निराशा भरे सागर में इन अबोल जीवों का निश्छल प्रेम ही उसको डूबने से बार-बार रोक रहा था। बेटी व पति का अन्तिम संस्कार करने के बाद भी कई दिनों तक वह यूँ ही अर्द्धविक्षिप्त सी बैठी रोती रहती। 

महीनों बीत गए परन्तु वह सुबह से शाम तक गुमसुम तट पर बैठी इसी आशा में सागर को निहारती रहती कि कोई जहाज या नौका उधर से निकले तो वह अपने बच्चे के पास वापस लौट सके। सोते-जागते वह जहाँ भी रहती अनेक पशु-पक्षी उसके इर्द-गिर्द ही मँडराते रहते। मानो उसकी रखवाली में जुटे हों। कभी नारियल-कन्द-मूल-फल लाकर उसके पास रख देते तो कभी तरह तरह की चेष्टायें करके उसका ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास करते रहते। उस दिन नट्टू बंदर के दोनों छोटे-छोटे बच्चों की नटखट कलाबाजियाँ देखकर वह अचानक जोर से खिलखिला उठी तो मानो वर्षों से बन्द पड़े किसी मन्दिर में अचानक सैकड़ों घंटे बजे उठे हों। पास ही चर रहीं गायें जोर से रम्भा उठों। दो-तीन हाथी जोकि पास मँडरा रहे थे खुशी के मारे सूँड उठाकर जोर से चिंघाड़े तो अगले ही क्षण टापू के दूसरे छोर से उसका प्रत्युत्तर भी आ गया.......और कुछ ही देर में टापू के समस्त पशु-पक्षी वहीं एकत्र हो गए। 

भावविभोर होकर उसने उन्हें प्यार से पुचकारा तो एक हाथी ने किसी कोमल फूल की भाँति उसे सूँड में  लपेटकर उठाया और पीठ पर बैठा लिया। फिर मस्त मतवाली चाल बना कर ले चला उसे टापू की सैर कराने। साथ-साथ पूरा टापूवासी समुदाय भी हर्ष ध्वनि करते हुए चल रहा था।

दिनभर टापू पर घूमने के बाद उन्होंने तालाब के किनारे पड़ाव डाला। तब सभी ने अपनी-अपनी रुचि के स्वादिष्ट कन्दमूल-फल लाकर उसके आगे ढेर लगा दिया। उनके इस आत्मीयता भरे व्यवहार ने आज उसकी चिन्तन धारा को पूरी तरह मोड़ दिया। उसे लगा कि इतने समय से वह व्यर्थ ही अपने परिवार के वियोग में घुल रही थी। उस छोटे से परिवार को खोकर उसने तो इतने बड़े परिवार को पा लिया था। जिनके हृदय में निश्छल प्रेम के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं......। 

बस यहीं से आरम्भ हुआ उद्योग का एक नया पर्व.......जहाज के अवशेष से आवश्यकता का सामान चुना गया तथा तालाब के किनारे एक सुन्दर कुटिया तैयार हो गई। टापू पर हजारों की संख्या में फैले शहतूत के पेड़ों पर ढेर के ढेर रेशम के कोकून लटके थे। उन्हें एकत्र कर कातने के लिए एक चरखा बनाया गया। बहुमूल्य शंख, सीप और मोती जड़े रेशमी पर्दों व गद्दों से सजी उसकी कुटिया किसी महारानी के शयनगार से कम न थी।

फिर तो मानो समय को पंख लग गए। कई तोतों को उसने "माँ" बोलना सिखाना चाहा परन्तु वे "माई" कहने लगे। तीस वर्षों का लम्बा समय यूँ ही हँसते-गुनगुनाते गुजर गया। परन्तु उस रात मानो प्रलय ही आ आयी हो। शाम से ही आकाश काले-काले बादलों से पट गया था। सारी रात गरज-चमक भरा चक्रवात टापू को कम्पित करता रहा। कई हाथी रात भर बूढ़ी माई की कुटिया को घेरे खड़े रहे। मानो उसमें कोई अमूल्य कोष रखा था। जिसकी उन्हें इस भयंकर चक्रवात से रक्षा करनी थी।

भोर हुई तो चारों असीम शान्ति थी। आकाश बिल्कुल स्वच्छ था। जैसे कुछ हुआ ही न था। तभी पश्चिमी तट की ओर से एक हाथी की चिंघाड़ सुनाई दी और तुरन्त ही सब के सब उधर ही दौड़ पड़े। वह भी एक हाथी पर सवार होकर वहाँ पहुँची तो देखा कि सैनिक वेश में एक व्यक्ति लाइफ जैकेट में लिपटा पड़ा है। हिलाया-डुलाया, अभी साँसे शेष थीं। पेट से पानी आदि निकाला व जल्दी से एक जड़ी-बूटी लाकर उपचार किया। शीघ्र ही नाड़ी पलटने लगी।

- "मैं कहाँ हूँ......!?' चेतना आने पर उसने वहाँ का विचित्र दृश्य देखा तो अनायास ही यह प्रश्न उसके मुख से निकल पड़ा।

- "तुम जहाँ भी हो, अब सुरक्षित हो बेटा!" बूढ़ी माई ने उसे दुलारते हुए कहा।

- "परन्तु आप कौन हैं? और क्या सचमुच आप यहाँ इन सब के बीच अकेली ही है!?" 

वहाँ के उस विचित्र दृश्य से आश्चर्यचकित होते हुए उसने पुनः प्रश्न किया तो बूढ़ी माई ने आदि से अंत तक अपनी पूरी कहानी उसे सुना दी। जिसे सुनकर उसका सैनिक हृदय भी दहल गया। तब उसने अपना परिचय देते हुए बताया कि वह एक सैनिक है और एक छोटे सैन्य जहाज पर अपने साथियों के साथ काम पर निकला था। तभी रात के इस भीषण चक्रवात में घिर कर उनका जहाज डूब गया और चक्रवाती लहरों ने उसे उठाकर इस टापू पर पटक दिया है।

इसके पश्चात उसका जमकर आतिथ्य सत्कार हुआ। फिर एक छोटी नौका बनाई गई तथा लगभग सप्ताह भर की खाद्य सामग्री के साथ ढेरों बहुमूल्य उपहार देकर उसे उसके देश विदा किया गया। सैनिक के बहुत आग्रह करने के उपरन्त भी जब बूढ़ी माई ने टापू छोड़ने से साफ मना कर दिया तो वह उसके बिछुड़े बेटे को शीघ्र मिलाने का वचन देकर लौट गया।

इस घटना के लगभग एक माह बाद एक दिन अचानक टापू पर कोहराम सा मच गया। एक-एक करके सभी पशु-पक्षी बूढ़ी माई की कुटिया के आसपास एकत्र होने लगे। कारण जानने के लिए वह बाहर आई तो सभी ने उसे भीतर धकेल दिया। कुछ देर बाद उसने देखा कि वही सैनिक दस-बारह लोगों के साथ पुनः लौट आया है। उसके वक्ष में अचानक एक विचित्र सी बेचैनी होने लगी। ह्रदय जोर-जोर से धड़कने लगा। वह कुटिया के बाहर खड़ी उन सभी के बीच अपने नन्हे-मुन्ने बेटे को खोज रही थी। उसे आशा थी कि एक दिन वह सैनिक उसके बच्चे को लेकर अवश्य लौटेगा। तब वह अपने नन्हे-नन्हे पैरों से छमछम करता हुआ आएगा और "माँ माँ" कह कर उससे चिपट जाएगा। परन्तु वह तो इनके साथ नहीं है! फिर यह सैनिक इन सब को क्यों लेकर आ रहा है!! 

वह खड़ी यही सोच विचार कर रही थी कि तभी उसके कानों में मिश्री से मधुर स्वर सुनाई दिया, "माँ......"
तो वह झट से घूम कर पीछे-दाएँ-बाएँ मुन्ना-मुन्ना कहते हुए उसे ढूँढने लगी। तब सैनिक ने उसके कन्धे पकड़कर एक प्रौढ़ व्यक्ति की ओर संकेत करते हुए प्यार से कहा, "माँजी, आपका मुन्ना वहाँ नहीं, यह है। अब ये बड़ा हो चुका है। 

वृद्धा ने नजर उठा कर सामने खड़े व्यक्ति को देखा, वह बाहें फैलाए "माँ माँ...." पुकार रहा था।

वृद्धा ने अपने हाथों से धीरे से उसके चेहरे पर छुआ, आँखों को परखा, बदन पर हाथ फेरा और फिर जोर से "मुन्ना....मेरा बच्चा!!!" कहते हुए छाती से चिपका लिया। 

काफी देर बाद वात्शल्य का उमड़ता सागर थमा तो बूढ़ी माई के सभी सेवक अतिथियों के सत्कार में जुट गए। परन्तु एक मूक उदाशी के साथ।

खाना-पीना समाप्त हुआ तो सभी लोग बूढ़ी माई का सामान समेटने लगे।

- "यह क्या कर रहे हो तुम लोग?" बूढ़ी माई ने रुष्ट होते हुए पूछा।

- "क्यों, ये सब क्या साथ नहीं ले चलना है, माँ?"

- "साथ!!!....परन्तु कहाँ?!"

- 'हमारे साथ माँ, अपने घर...."

- "किन्तु मेरा घर तो यह टापू ही है। अब मैं इसे नहीं छोड़ सकती।"

- "नहीं माँ....मैं अब आपको इस जंगल में अकेले नहीं रहने दे सकता।"

- "नहीं बेटा....मैं अकेली कहाँ हूँ.....यहाँ तो मेरे इतने सारे बच्चे हैं और तू इसे जंगल बता रहा है!!!..."

- "ठीक है माँ, मैं इन सब को भी साथ ले जाऊँगा.....।

- "इन सबको!!!....ये पेड़, ये पौधे, ये मैदान, पहाड़ी, झरना....इन सबको कैसे और क्या-क्या ले जाएगा तू......ये सभी तो आपस में गुँथे पड़े हैं। इनमें से कोई एक भी बिछुड़ गया तो सारे मिट जाएंगे......।" 

बहुत समझाने-बुझाने के उपरन्त भी जब बूढ़ी माई ने टापू को छोड़ना स्वीकार न किया तो सभी ने वहीं धरना दे दिया। कई दिन तक एक दूसरे को मनाने के प्रयास चलते रहे। परन्तु अंत में सभी को बूढ़ी माई की इच्छा के आगे झुकना पड़ा। फिर सबने अनावश्यक परिश्रम न करने का आदेशात्मक सा निर्देश दिया तथा वस्त्र-भोजन आदि आवश्यकताओं का सभी सामान वहीं पहुँचाते रहने का संकल्प कर अश्रुपूरित विदाई ली। 

अपने सभी बच्चों के साथ तट पर खड़ी वह तब तक उनके जहाज को निहारती रही जब तक वह आँखों से ओझल न हो गया। कुछ देर बाद फिर से टापू पर उसका वही गीत व चरखे का मधुर संगीत गूँजने लगा -

"चल-चल रे चरखवा तू शोर न मचा,
 अभी-अभी लौटा है मेरा मुन्ना राजा,
 आएगा तो रोएगा और होएगा खफा,
 मुश्किल मेरी आएगी, कैसे मनाऊँगी बता......।"