Monday 29 December 2014

हिंदुस्तानी

किसी प्रकार बचा-बचाकर अंतड़ियों में छुपायी वह रत्तीभर शक्ति भी जब खाँसी ने बुरी तरह मथकर बाहर निकाल छोड़ी तो उसने लगभग चेतना रहित हो चुके अपने एक हाथ को धीरे से सीने पर घुमाया। जिससे उसे थोड़ी राहत सी महसूस हुई। ऐसी राहत महाजन के ऋण में दबे प्रेमचन्द जी के शायद ही किसी पात्र ने अपने जीवन में कभी महसूस की होगी।

आँखें फाड़कर सामने देखा। शायद दुनिया के उस छोर को देख लेना चाहता था। परंतु कंक्रीट के उस जंगल से टकराकर दृष्टि लौटकर पुनः पोरवों में भिंची बीड़ी पर आ टिकी। हाथ में एक क्रत्रिम सी गति हुई और अगले ही क्षण नीले से धुएँ का बादल उसके नथुनों से निकल पड़ा।

सामने दूर आकाश में जहाज गहरे सफेद धुएँ की मोटी लकीर खींचते हुए एक छोर से दूसरे छोर की ओर बढ़ रहा था। नीला धुआँ सफेदी पाकर ओर भी अधिक गहरा, फिर काला हो गया। बिल्कुल श्यामपट्ट की तरह। फिर उस श्यामपट्ट पर कुछ चित्र उभरने लगे। काले, बिल्कुल काले। जहाँ प्रकाश ही नहीं वहाँ रंग कहाँ से आते। फिर, श्यामपट्ट और कैनवस में बहुत अंतर है। गोल-गोल घूमती धरती और अंतहीन आकाश का अंतर। यथार्थ और कल्पना का अंतर। यथार्थ की गहरी खाईयां भयानक होतीं हैं। जबकि कल्पना की उनसे भी गहरी खाईयां सुंदर और अतिसुंदर हो जातीं हैं। या सुंदरता की पराकाष्ठा ही बन जातीं हैं। जबकि श्यामपट्ट को तो शाम के बाद रात  में ही ढ़लना होता है, वहाँ रंग कैसे टिकते।

हाँ इतना तो उसने भी सुना था कि रात में चमकने वाले सितारे, दिन के सूरज से भी बड़े होते हैं। परंतु दिन के अकेले सूरज में ऐसा क्या होता है जो रात के करोड़ों सितारे मिलकर भी उसके सम्मुख नहीं टिक पाते!

यह बात वह उस दिन से आज तक भी नहीं समझ पाया जिस दिन उसने सड़क के उस पार बंगले से आ रही पकवानों की सुगंध और गाने-बजाने की आवाजों को सुनकर आँखें फैलाते हुए पूछा था,  "वहाँ क्या हो रहा है?'"

- "तेरे जनम की खुशी मनायी जा रही है।"
किसी का गर्वित सा स्वर उसे सुनाई पड़ा था। शायद माँ का। हाँ माँ का ही रहा होगा। क्योंकि इन शब्दों को बोलने में इतना गर्व ओर भला किसे हो सकता है।

कुछ सोचता धीरे-धीरे वहाँ पहुँचा तो चौकीदार कड़क उठा, "कहाँ जाता है।"

- "मेरा..........."

भीतर की ओर बाँह उठाकर सहमी आँखों और घिघ्याती जबान से इतना ही निकला और एक धक्का खाकर वह सड़क पर जा गिरा था। बदन पर पड़ी एकमात्र एक बाजू और दो बटन वाली कमीज़ पीठ से चर्र बोल गई।

प्यासी आँखों से एक बार फिर उधर देखा। छ:-सात महीने पहले भी तो वह यहाँ आ जाया करता था और भीतर पड़े कभी बालू रेत और कभी ईंटों के घरोंदे बनाया करता था। फिर आज...........??

कुछ समझ नहीं आया तो कमर सहलाते, भूखी-प्यासी दृष्टि पीछे घसीटते अपनी झोंपड़ी में लौट आया था।

आज फिर वह खुद उनके लिए बंगला बना रहा है। जिसके बाहर फिर चौकीदार बैठाकर उसका अंदर आना वर्जित कर दिया जाएगा। परंतु वह स्वयं क्या है?

उस दिन सड़क के छोर पर लगे मजमे से आती आवाजें सुनकर जब वह भी वहाँ पहुँचा तो कोई सफेदपोश कह रहा था, "हम सब एक हैं। हमारा मजहब हमारा देश है, हिंदोस्तान। हम सब हिंदुस्तानी हैं।"

- "क्या मैं भी............!" वह धीरे से बुदबुदाया था।

- "मैं, तुम, हम सब..........।" सफेदपोश की आवाज उसके कानों में घुँस गई थी।

"मैं भी हिंदुस्तानी" गहरी श्वास छोड़कर एक शुष्क सी मुस्कान के साथ बड़बड़ाया और बुझी हुईं बीड़ी के ठूँठे को ऊँगली से ठोकर मारकर दूर उछाल दिया।

- "अरे रमुआ, दिन ढलने लगा, बैठा बीड़ी फूँकता रहेगा का...? काम पर नहीं लगना का?"
एक कर्कश स्वर उसके कानों में घुँसा और उसे फिर वर्तमान में घसीट लाया। घुटनों को हाथों से दबाते हुए खड़ा हुआ तो सभी साथी मजदूरों ने अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र संभाल लिये थे। भड़भड़ाता हुआ कंक्रीट मिक्सर मानों उसे चुनौती दे रहा था कि दम है तो मेरे संग चलकर दिखा।

अचानक नसों में एक बिजली सी दौड़ी और गले में पड़े पसीने और मिट्टी भरे कपड़े को   उसने कसकर सर पर लपेट लिया। फिर किसी यंत्र की भाँति तसला उठाऐ सामने सीमेंट के कट्टों के ढेर की ओर बढ़ गया। दोपहरी भर के तपे सीमेंट में हाथ डाला तो हाथ में एक बार झुरझुरी सी उतपन्न हुई और फिर सुन्न हो गया। तसला सिर पर रखा और जाकर मिक्सर के मुँह में झोंक दिया।

यह क्रमिक गति चली और चलती रहेगी। न जाने कब तक। सूर्य की परिक्रमा करती धरती की विशाल गति के समान तो नहीं, हाँ पुराने जमाने के कोल्हू के बैल के समान। सीमेंट के ढेर से मिक्सर तक की दूरी को वह अतीत में से होकर वर्तमान से आधुनिकता तक नाप रहा है।

- "का बात है रे रमुए! कछु भारी सा दीखे है।"

- "कुछ नहीं, दद्दा।"

- "ना, कछु तो है?"

- "बस ऐसे ही सोच रहा था कि अगर हम हिंदुस्तानी हैं तो कारों-बंगलों में रहने वाले लोग कौन हैं!"

- "इंडियन........॥" दद्दा सहसा बोल उठा।

- "इंडियन............?"

- "हाँ,  ओर नहीं तो क्या। जानता नहीं,  सुभाष, भगतसिंह, आजाद, राजगुरु सब अपने-आप को हिंदुस्तानी कहते थे। क्योंकि उनके पास भी ना तन ढ़कने के लिए कपड़ा था ना सर छुपाने के लिये छत। दूसरे लोग जिनके पास बंगले भी थे, गाड़ियां भी थीं, वे अंग्रेजों के साथ खाते-पीते भी थे। वे अपने-आपको हिंदुस्तानी से ज्यादा इंडियन कहलाने में ही गर्व महसूस करते थे।"
व्याख्यान कुछ दिमाग में घुँसा कुछ दायें-बायें से निकल गया तो सिर झटकते पैर पटकते फिर अपनी राह पर आगे बढ़ लिया।
तभी ऊपर से कुछ कोलाहल के स्वर कानों में पड़े तो जिज्ञासावश मुँह ऊपर उठाया। परंतु जवाब में कोई चीज सर में बँधे कपड़े को चीरकर गच्च से अंदर समा गई।

एक खामोश शून्य प्रकट हुआ और उसे अपने आगोश में लेकर अनंत की ओर प्रसारित होने लगा।पहले अनंत अंधकार, फिर प्रकाश, ओर आगे अनंत प्रकाश,फिर छितराए रंग, आगे अनंत रंग। अनंत कमलों से होकर अनंत स्वरों पर प्रसारित होते हुए अंत में एक गान में विलीन हो गया। इतना मधुर, इतना स्निग्ध, इतना पीड़ाओं से रहित अहसास................माँ की गोद से उतरने के बाद कभी हुआ हो......... याद नहीं आया, तो उसी स्वर लहरी पर झूमते हुए माँ का आँचल पकड़ने की कोशिश में बाँह फैलाए जमीन पर आ गिरा।

- "कौन था ये ?" नाड़ी टटोलते हुए बाँह पर गुदे 'हिंदुस्तानी' पर नजर पड़ी तो यह अनचाहा प्रश्न मुख से निकल पड़ा।

- "साब, कहता था कि इसका और आपका जनम एक ही दिन हुआ था।"

साहब के शरीर में सर से पैर तक एक सरसराहट सी दौड़ गई। शायद मृत्यु की कल्पना मात्र से या झुर्रियों के बीच नालियां बनाकर बहते उसके खून को देखकर....।

Friday 26 December 2014

सुना है!

कबीलों का नाम,
अब धर्म हो गया है।
सरदार कबीलों का,
अब ईश्वर हो गया है।
सुना है मानव,
अब बड़ा बुद्धिमान हो गया है!!

धर्म-ईश्वर,
अब व्यापार बन गया है।
बाजारों का,
अब ये हाल हो गया है।
शेष नैतिकता के,
यहाँ मिलता है सबकुछ।
नारी-शील,
सरे-राह नीलाम हो गया है।
सुना है मानव,
अब बड़ा बुद्धिमान हो गया है!!

घर भी,
अब एक बाजार हो गया है!
नाते - रिश्तों का,
अब ये हाल हो गया है।
नाम से अपने मगर,
एहसान खरीदते ओ एहसान बेचते हैं।
फर्ज का कर्ज,
चंद सिक्कों में तुल गया है!
सुना है मानव,
अब बड़ा बुद्धिमान हो गया है!!

मदिरा,
अब गुणकारी औषध बन गई है।
नदियाँ-झीलें,
अब पोखर बन गईं हैं।
वायु में,
अब घोल दिया है जहर।
फुनगी पेड़ की,
अब सूनी-लाचार हो गई है।
सुना है मानव,
अब बड़ा बुद्धिमान हो गया है!

खेतों में,
अब इमारतें उग आईं हैं।
मृदा,
अब प्राणहीन हो गई है।
कंक्रीट की,
अब बिछा दी गई है चादर।
गौधन,
अब मनुजाहार हो गया है।
सुना है मानव,
अब बड़ा बुद्धिमान हो गया है!

जाहिलों का लिखा,
अब साहित्य हो गया है।
बेसुरा सारा,
अब संगीत हो गया है।
वेदों में,
अब खोज डालीं हैं कमियां।
कुरान ईश्वर का,
अब अंतिम दस्तावेज़ हो गया है।
सुना है मानव,
अब बड़ा बुद्धिमान हो गया है!

Monday 1 December 2014

काश ! कोई वज्र बना पाता

मैं किसी का नहीं तो क्या
मैंने तो सारा जहान पाया है।
खोया है जमाने ने मुझको
मैंने तो सारा जमाना पाया है।
घाटे में रहेगा यह जमाना ही
मैंने तो बस पाया ही पाया है।

आया था इस जहान में जब
बदन नंगा और हाथ भी खाली था।
आज
तन पे लंगोट और हाथ में कलम है ।
इतना एहसान ही इस जमाने का
ना मेरे लिए कुछ कम है!

अक्सर सोचता हूँ,
इस जमाने को
क्या देता हूँ मैं 'मल' के सिवा।
इक दिन चला जाऊँगा, फिर
राख का इक ढेर
जमाने के सर छोड़कर।

काश ! कोई इंद्र
मेरी भी हड्डियों का
कोई वज्र बना पाता !