Monday, 1 December 2014

काश ! कोई वज्र बना पाता

मैं किसी का नहीं तो क्या
मैंने तो सारा जहान पाया है।
खोया है जमाने ने मुझको
मैंने तो सारा जमाना पाया है।
घाटे में रहेगा यह जमाना ही
मैंने तो बस पाया ही पाया है।

आया था इस जहान में जब
बदन नंगा और हाथ भी खाली था।
आज
तन पे लंगोट और हाथ में कलम है ।
इतना एहसान ही इस जमाने का
ना मेरे लिए कुछ कम है!

अक्सर सोचता हूँ,
इस जमाने को
क्या देता हूँ मैं 'मल' के सिवा।
इक दिन चला जाऊँगा, फिर
राख का इक ढेर
जमाने के सर छोड़कर।

काश ! कोई इंद्र
मेरी भी हड्डियों का
कोई वज्र बना पाता !


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