एक बार तीन व्यक्ति अपनी-अपनी गाडियां लेकर एक लंबी यात्रा पर निकले उनमें एक शूद्र मानसिकता वाला था, दूसरा वैस्य और तीसरा ब्राह्मण मानसिकता वाला। चलते-चलते मार्ग में वैस्य को लघुशंका हुई तो उसने सोचा कि यदि मैं रुकूँगा तो पीछे रह जाऊँगा। अत: उसने पास ही लुढ़कती खाली बोतल ली और निवॄत हो लिया।
आगे बढने पर वे तीनों एक तालाब के पास पहुँचे। सभी थोड़ा थक चुके थे अत: सभी लोगों ने कुछ देर वहीं ठहरने का निश्चय किया। तब ब्राह्मण ने तालाब के जल का निरीक्षण करने के बाद कहा कि यह पानी एकदम शुद्ध और पवित्र है। अत: हमें इससे अपनी प्यास बुझानी चाहिए और थोड़ा-थोड़ा आगे के लिए भी साथ ले लेना चाहिए।
इस पर शूद्र ने उसका प्रतिवाद करते हुए कहा कि यह जल इस निर्जन जंगल में ना जाने कब से भरा पड़ा होगा। अत: यह पीने योग्य शुद्ध बिल्कुल नहीं हो सकता। विवाद बढ़ा तो शूद्र ने तुरंत अपने कपड़े उतारे और तालाब में छलांग लगा दी उसमें से अशुद्धि खोजकर लाने के लिए।
चूँकि तालाब का जल एकदम निर्मल था अत: उसे ऐसा कुछ भी हाथ न लगा जिससे वह अपनी बात पुष्ट कर सके। वह निराश लौटने ही वाला था कि तभी उसे एक छोटी सी मेंढकी दिखाई पड़ी। उसने जैसे ही मेंढकी की ओर हाथ बढाया मेंढकी ने अपने पॄष्ठ मार्ग से कुछ अपशिष्ट सा उसकी ओर त्याग दिया। शूद्र ने तुरंत उस अपशिष्ट और मेंढकी को लिया और बाहर आ गया।
बाहर आकार उसने बतलाया कि यह मेंढकी न जाने कबसे इसी तालाब में रहकर इसी में ही मल-मूत्र विसर्जित कर रही थी। जैसा हमारा मल-मूत्र वैसा ही इस मेंढकी का मल-मूत्र। क्या हम मल-मूत्र मिले जल को भी शुद्ध और पवित्र मानकर पी सकते हैं?
इस पर ब्राह्मण ने कोई प्रतिवाद न करते हुए शांतचित होकर तालाब से जल लिया, हाथ-मुँह धोकर जल पिया और थोड़ा अपनी बोतल में लेकर चुपचाप अपने मार्ग पर आगे बढ़ गया।
इतनी सब महनत के बाद के बाद प्यस शूद्र को भी लग आई थी। परंतु तालाब का जल तो उसकी दृष्टि में अशुद्ध था अत: उसने वैस्य से कहा कि भाई आपके पास पीने योग्य पानी हो तो मुझे दे दो मैं आपको उसकी जो कीमत कहो दे दूँगा। वैस्य ने एक क्षण सोचा और गाड़ी से वही बोतल लाकर उसे पकड़ा दी जिसमें उसने मार्ग में लघुशंका विसर्जन किया था। शूद्र ने बोतल लेकर वैस्य को पैसे दिए और धन्यवाद कहकर वह मूत्र मिश्रित जल पीकर तृप्त हो गया।
तब शूद्र ने कहा कि अब हमें भी शीघ्रतापूर्वक चलना चाहिए। ब्राह्मण काफी आगे निकल गया होगा। इस पर वैस्य ने मुस्कुराकर कहा कि तुम चलो मैं अभी थोड़ा ओर विश्राम करना चाहता हूँ। मैं जल्दी ही तुम लोगों तक पहुँच जाऊँगा।
'ठीक है'[ :) ] कहकर शूद्र ने विदा ली।
तब वैस्य ने उसके पास जितनी बोतलें व दूसरे पात्र थे सबमें जल्दी-जल्दी तालाब से जल भरा और किसी को संदेह ना इसलिए उनमें थोड़ा अपना और थोड़ा आसपास घूमते दूसरे पशुओं का अपशिष्ट मिलाकर गाड़ी में भरा और जल्दी से उसी ओर चल दिया जिधर ब्राह्मण और शूद्र गए थे।
अब मार्ग में जब भी शूद्र को प्यास लगती वह वैस्य को पैसे देता और पानी ले लेता। ब्राह्मण तो अपने लिये जल तालाब से ले ही आया था। जिसे देखकर वैस्य को कुढ़न तो बहुत होती परंतु वह कुछ नहीं कह पाता।
इस प्रकार तीनों मित्र खुशी-खुशी यात्रा पूरी कर अपने-अपने गंतव्य को चले गए।
जैसे उन मित्रों की यात्रा की नैया पार लगाई ईश्वर सबकी नैया पार लगाऐं।
:( इंसान है कुछ भी कर सकता है
ReplyDeleteजैसी जिसकी भावना...
ReplyDelete