मैं भी कभी एक पर्वत था
आज पषाण कंकालों का टीला हूँ
तब
दूर सागर के गर्भ से आए
थके-मांदे मेघ भी मुझपर
दो पल सुस्ताया करते थे
और कोई-कोई तो खुश होकर
चाँदी सी उजली बर्फ भी
बिखेर जाया करते थे
मद-मस्त हवाओं के झोंके
धीरे से मेरे कानों में
दूर देश का कोइ संदेशा
गुनगुना जाया करते थे
भांति-भांति की रंग-गंध के पौधे
श्रॄंगार मेरा किया करते थे
उन पर बैठे पंछीगण
मुझसे बातें घडते थे
बहती थी एक निर्मल धारा
मंदाकिनी उसको कहते थे
कलकल करती छमछम बहती
अठखेली मुझ संग करती थी
सूरज रोज सवेरे आकर
रोली मेरे मस्तक पर
नित्य बनाया करता था
फिर मेरी चोटी में
स्वर्ण लताऐं सजाया करता था
अंबर भी तब तो मुझपर
अपना पैर जमाऐ रहता था
कहता था 'भैया'
ये जो सूरज-चाँद-सितारे
धरती माँ को बड़े ही प्यारे
इसीलिये तो तेरे सहारे
इनकों सिर पर उठाए रहता हूँ
देख-देख इठलाती यह जब
बस इसी से मैं सुख पाता हूँ
मगर आज जाने क्यूँ
खफ़ा हैं मुझसे ये सारे
ए-नीले अम्बर
हुआ दूर क्यूँ तू मुझसे
ए-बादल प्यारे
तनिक नीचे आकर
बतला तो मुझको
कौन देश तू जाना चाहे
ए-बुलबुल प्यारी
क्यूँ फिरती तू मारी-मारी
आकर बैठ तनिक तो पास
करेंगे मीठी-मीठी बातें।
रुक जरा हवा ए-प्यारी
लगता तुझको भी है दुख भारी।
जीर्ण-शीर्ण हुआ तन तेरा
क्या जग में सारे
कहीं भी मिला ना बसेरा।
वो कल-कल धारे
पेड़-पौधे प्यारे
जाने कहां खो गए हैं सारे।
मैं अकेला
सूखा-उजड़ा-बंजर
आहट कोई भाँप रहा हूँ
एक कल को आज भोग रहा हूँ
दूजे को भी देख रहा हूँ
और
सोच-सोच यह काँप रहा हूँ
मानव की ये कुदालें
डायनामाइट और मशीनें
क्यूँ मेरी जड़ें खोद रही हैं।
यह मूर्ख नादान
समझ रहा खुद को 'सर्वशक्तिमान'
मगर यह तो इसका बस
झूठा-मिथ्या अभिमान।
इसी अभिमान में फँसकर
यह तो खुद को ही मिटा रहा है
अपने पैरों पर
खुद ही कुल्हाड़ी चला रहा है।
ए-नीले अम्बर
लेकर सारे चाँद-सितारे
छुप जा जाकर
अंतरिक्ष के किनारे।
ए-बादल तू भी
समा जा सागर में जाके।
ए-हवा तू भी
संग बुलबुल के
छुप जा किसी खोह में जाके।
पगलाया मानव
कहीं संग अपने
तुम सबको भी ना जला दे
तुम सबको भी ना जला दे।
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