Friday, 23 June 2017

समय का फेर

समय की विडंबना कहूँ
या कहूँ
काल का ही कोई दुर्योग
गाँव की बीघों जमीन बेचकर
आज शहरों में
गमले सींचते हैं लोग!

खड़ीं रहतीं थीं जिनके द्वारे
छबीले बैलों की जोड़ियाँ
आज पिंजड़ों में
पंछी पालते हैं वही लोग!

कहते हैं,
अब हम बड़े हो गए हैं
मगर बचपन में
जो बेलाभर पीते थे दूध
आज चाय के कप में
सिमट जाते हैं लोग!

चेतना की अलौकिक बेड़ियों में जकड़
सहजीवी थे जो पशु - ओ - मानव
आज निर्जीव यंत्रों में
अपनापन खोजते हैं वही लोग!

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