Friday, 23 June 2017

समय का फेर

समय की विडंबना कहूँ
या कहूँ
काल का ही कोई दुर्योग
गाँव की बीघों जमीन बेचकर
आज शहरों में
गमले सींचते हैं लोग!

खड़ीं रहतीं थीं जिनके द्वारे
छबीले बैलों की जोड़ियाँ
आज पिंजड़ों में
पंछी पालते हैं वही लोग!

कहते हैं,
अब हम बड़े हो गए हैं
मगर बचपन में
जो बेलाभर पीते थे दूध
आज चाय के कप में
सिमट जाते हैं लोग!

चेतना की अलौकिक बेड़ियों में जकड़
सहजीवी थे जो पशु - ओ - मानव
आज निर्जीव यंत्रों में
अपनापन खोजते हैं वही लोग!

                ***

Thursday, 16 February 2017

संसार सारं(एक प्रयास)

- शून्य क्या है ?

- शून्य शब्द है।

- शब्द क्या है ?

- शब्द ओंकार है।

- ओंकार क्या है ?

- सहस्रदल पद्म का विस्तार ही ओंकार है।

- सहस्रदल पद्म क्या है ?

- विष्णु नाभि का विस्तार सहस्रदल पद्म है।

- विष्णु नाभि क्या है ?

- विष्णु नाभि विष्णु का शक्ति केंद्र है।

- विष्णु क्या है ?

- विष्णु परब्रह्म का एक अंश हैं और सृष्टि का आदि और अंत भी हैं।

- परब्रह्म क्या है ?

- परब्रह्म मानव चेतना से परे है। अर्थात मानव चेतना उसकी व्याख्या नहीं कर सकती। क्योंकि परब्रह्म तक पहुँचकर मानव चेतना उसी में विलीन हो जाती है। सृष्टि के समस्त बंधनों, प्रारब्धों, कर्मों, कर्मफलों से मुक्त होकर ब्रह्ममय होकर उसी की भाँति सर्वव्यापी हो जाती है। यह स्थति प्राप्त करना ही अबतक ज्ञात जीवन का अंतिम लक्ष्य भी है।


Wednesday, 8 February 2017

वास्तविक आयु

एक स्त्री बडी धर्मपरायणा थी। सत्संग करती, साधू-संतों की सच्चे मन से सेवा करती, घर बाहर सभी जगह पूर्णमनोयोग से अपने धर्म का समुचित पालन करती।

एक बार उसके निवास पर कोई महात्मा पधारे। स्त्री के सेवा भाव से महात्मा बडे संतुष्ट  हुए। फिर उनकी धर्म-शास्त्रों पर चर्चा होने लगी। स्त्री की विद्वत्तापूर्ण बातें सुनकर महात्मा ने पूछा - पुत्री, तुम्हारी आयु क्या है?

स्त्री- बारह वर्ष, महाराज!

- तुम्हारे पति की?

- जी, दस वर्ष, महाराज!

- और पुत्री, तुम्हारी सास की आयु ?

- महाराज, यही कोई चार वर्ष!

महात्मा (आश्चर्य से) - और पुत्री तुम्हारे ससुर की आयु!?

स्त्री - महारज, वह तो अभी पैदा ही नहीं हुए हैं!

महात्मा चकरा गये। बोले - तुम झूठ तो नहीं बोल सकतीं परंतु यह सब क्या रहस्य है?

तब स्त्री ने उन्हें समझाकर कहा की महाराज इंसान की आयु तो उतनी ही मानने योग्य होती है जितनी वह स्वधर्म पालन और परमार्थ में प्रयोग करे। बाकि जीवन तो बस ईंट-पत्थर और पशु-पक्षियों के समान ही है। जिनके बारे में आपने पूछा वे रिश्ते तो बस हम इंसानों में ही होते है सो मैंने उनकी सच्ची आयु बता दी।

मेरे आने से पूर्व यहां सब धनपशु ही थे। दस वर्ष पूर्व पति ने और चार वर्ष पूर्व सास ने धर्म मार्ग पहचाना और उस पर चलने लगे, तो उतनी ही उनकी आयु मैंने बताई है। ससुर अभी भी वैसे ही धनपशु होकर जी रहे हैं तो मैं उनकी क्या आयु बताऊँ!


Tuesday, 3 January 2017

मानव धर्म का संदेश मानव जाति के नाम

[यहां प्रयुक्त 'सीमा-रेखा' शब्द केवल राष्ट्रों की सीमाओं के लिए नहीं बल्कि धर्म-जाति-संप्रदाय-लिंग आदि की जो रेखाऐं हमनें अपने चारों ओर खींच लीं हैं उन सभी के संदर्भ में है]

ओ! सीमा-रेखा पर लडने वालो
क्या मन में तुमने ठाना है?
खून बहाकर क्या जीतोगे
यह संसार तुम्हारा है!
धरती-अंबर, पर्वत-सागर
सूरज- चाँद-सितरा है,
नदिया-मलयज, कोकिल-शावक
चमन यह कितना प्यारा है!
बैर-भाव गर तुम छोडो
सब कुछ तुम पर वारा है।
मिटा लकीरें एक बनों
बस यह संदेश हमारा है।

रुको जरा ओ रण-दीवानो,
पहले जरा वे लाशें उठा लो
जिनको फिर ना कांधा मिलेगा!
माँ-बहनों के आँसू सुखा दो,
रण-भूमि का सन्नाटा हँसेगा!
जाते-जाते इक बात बता दो,
लहू धरा पर किसका गिरेगा?
नफरत की इस ज्वाला में
चमन बता दो किसका जलेगा!

नहीं विजय किसी को मिलती
बस होती मानवता की हानि है!
जिस मिटटी पर लहू है गिरता
बंजर वह बन जाती है।
भूत-पिशाच उगते हैं उसमें
नहीं रोटी पनप वहां पाती है!
जलजले नित आते उसमे
धरती माँ भी रोती है!

इसी लिए तो प्यारे बंधुओं
बस इतना कहता जाता हूँ,
छोड बंदूकें हल उठाओ
पुनर्नया निर्माण करो तुम
जोतो- खोदो इस धरा को
और सोना उपजाओ तुम
तभी भरेगा पेट सभी का
संग अपनी भूख मिटाओ तुम

नहीं कहता मैं कायर बनकर
जग को खूब हँसाओ तुम
दम है तो निज कर में
सागर से नीर उठाओ तुम
और मस्तक पर धरकर उसको
'पोखरण' में बरसाओ तुम
हरा भरा एक सुंदर आँचल
वसुंधरा को पहनाओ तुम!

भूख-प्यास से लड़ने वाले
हर प्राणि को यूँ सहलाओ तुम
हर चेहरे पर मुस्कान खिले
और संग उनके मुस्काओ तुम
प्रेम भाव की अग्नि दहाकर
खुद उसमें जल जाओ तुम
और प्रहलाद सम निज को तपाकर
सूरज सम चमकाओ तुम!

सीना ताने खडा यह अंबर
भू-चरणों में इसे झुकाओ तुम
सुमेरू गिरि को लेकर फिर से
मंथन अब कर डालो तुम
मिले जो विष-घट अमृत समझ
निज कंठ में उसको धारो तुम
और लेकर अमृत जगत में उसको
यूँ प्रेम सहित बिखराओ तुम
रहे ना द्वेष-ईर्षा इस जग में
ऐसा जहां बनाओ तुम
सत्य-अहिंसा का चोला धर
महा-मानव बन जाओ तुम
तब होवे जयकार तुमहारी
भारती-सुत कहलाओ तुम
भारती-सुत कहलाओ तुम
भारती-सुत कहलाओ तुम..........