Sunday, 27 December 2015

मुझे भी इंसान बना दे

इक रोज कहा मैंने अपने खुदा से
ए-मालिक सुना है, तू बड़ा चमत्कारी है!
तूने सितारे बनाये हैं,
इक अजूबा चाँद भी बनाया है!
तू मुझे भी इंसान बना दे तो जानूँ
अपने इस जहाँ की सैर करा दे तो जानूँ!

रुह बनकर रहता था मैं उस जमाने में
पड़ा रहता था इक अजब से मयखाने में।
अँधेरा ही अँधेरा था बस वहाँ
इसीलिये मैंने खुदा से कहा-
तनिक अपनी रोशनी मुझे भी दिखा दे तो जानूँ
तू मुझे भी उड़ना सिखा दे तो जानूँ!

खुदा हौले से मुस्कराया
शायद मेरी फरियाद पर उसे थोड़ा रहम आया।
फिर उसने अपना जादुई डंडा घुमाकर
आजाद कर दिया मुझे उस दरिखाने से।

मैं भी निकल पड़ा उस अजूबे जहाँ की सैर करने
मगर इक रोज फिर राह में खुदा मुझे मिल गया।
हाल-चाल पूछा तो यूँ कहने लगा मैं खुदा से-
ए-मालिक! तू तो वाकई बड़ा करामाती है,
तेरे इन चाँद-सितारों का ना कोई सानी है!

मगर मुझे भी एक छोटी सी जमीं बना दे तो जानूँ
मेरा भी इक दिलबर मिला दे तो जानूँ!

खुदा ने गौर से मुझे देखा
शायद मेरी मंशा वह भाँप गया।
फिर जेब से इक गैंद निकाली
और  उँगलियों पर नचाकर मेरे पैरों तले छोड़ दी।

छोटे-छोटे कदमों से उसे मैं नापने लगा,
राह में न जाने  किस-किस से मिलता बिछुड़ता रहा।
इक रोज यूँ ही चला जा रहा था मैं कुछ सोचते हुए,
कि राह में फिर खुदा दिख गया।

पूछने लगा खुदा मुझे यूँ सोचते देखकर-
मुझे बता मेरे बच्चे, तेरा क्या गम है!
मेरी इस दुनिया में वो क्या चीज कम है
जिसकी वजह से तेरी आँखें आज यूँ नम हैं!

यूँ कहने लगा तब मैं खुदा से-
ए-मालिक! तू बड़ा दरियादिल है!

मैं तेरे इन चाँद-सितारों को लाकर
अपनी इस जमीं को सजाना चाहता हूँ,
इसे जन्नत से भी सुंदर
बनाना चाहता हूँ।

तनिक विज्ञान मुझे दे दे तो जानूँ,
तु मुझ पर मेहरबान हो जाय तो जानूँ!

सुनकर मेरी फरियाद, खुदा थोड़ा चकराया
शायद मेरी अर्ज पर उसे गुस्सा भी आया।
फिर कहने लगा मुझे यूँ समझाकर-
ऐसी जिद्द मत कर ए मेरे नूर-ए-जिगर!

विज्ञान कोई मामूली बच्चों का खिलौना नहीं है,
इसको काबू में रख सके, तुझमें अभी वो धार नहीं है।
बड़ी शिद्दत से बनाया है, मैने इसको अपना गुलाम
वर्ना मिटा डाले यह तो, पल में सारा नाम-ओ-निशां।

मगर मैं,
फिर भी अपनी जिद्द पर अड़ा रहा,
तो जेब से इक डिबिया निकालकर
खुदा यूँ कहने लगा-

जब तक सितारे तुझसे न पूछें टिमटिमाने के वास्ते/
जब तक चाँद तुझसे न पूछे चाँदनी फैलाने के वास्ते/
जब तक बादल तुझसे न माँगें पानी-पीने के वास्ते /
जब तक हवा तुझसे न माँगे आगे बढ़ने के रास्ते /

तब तक ए मेरे बच्चे, इसे रखना यूँ ही सहेज कर
छेड़खानी न करना इसके साथ कभी भूलकर।

डिबिया लेकर मैं ज्यों कुछ कदम आगे बढ़ा
कि मेरे दिल में यह ख्याल आया-
यह विज्ञान दिखता है कैसा, तनिक देखूँ तो उघाड़ कर।
सदियों से पड़ा है बंद, बेसुध होगा या पड़ा होगा अलसाया।
झट से कर दूँगा बंद, गर थोड़ा भी गुर्राया।

ऐसा कर विचार ज्यों ही मैंने ढक्कन थोड़ा सा उठाया,
इक गहरे धुएँ का बादल सा निकलकर बाहर आया।
और छाने लगा मुझपर एक गज़ब का नशा बनकर,
मैं भी झूमने लगा अपनी तमाम सुधबुध खोकर।

और फिर,
और फिर इक दिन जब मुझे होश आया
तो हर तरफ था बस,
लहू-ओ-राख़ के ढ़ेरों का साया।

ना थी वो जन्नत सी जमीं, ना वो चाँद-सितारा
हर तरफ था बस खूँ का मंजर खूँ का नज़ारा।
रूह तक काँप उठी मेरी, देखा जो यह  आलम सारा।
रो-रोकर मैंने फिर से खुदा को पुकारा!

यूँ कहने लगा खुदा तब दूर फ़लक पर खड़ा होकर-
ए-मूर्ख क्यूँ रोता है अब आहें भरकर!
कितना समझाया था मैंने तुझे,मगर तूने मेरी इक बात न मानी।
और आज खुद ही लिख डाली, अपनी बरबादी की कहानी।

मैंने तो तुझको बनाया था इंसान
मगर इस विज्ञान ने बना डाला है तुझको हैवान।

अब तो रहम कर ए मेरे रहीम-ओ-रहमान
इक बार फिर बना दे, मुझको तू इंसान!
कर ले  कबूल, मेरी यह अंतिम फरियाद
तो  मानूँ तुझे, तू है  सबका मददगार!

थोड़ा ओर सब्र कर अरे बदनसीब
अंत ही आ पहुँचा तेरा, अब तो तेरे करीब।
ना बची वो जमीं, ना रहा वो आसमाँ
फिर क्या करेगा तू,अब बनकर इंसाँ।

कुछ ही पलों का तो बाकी है अब यह निशां।
तू भी चले आना फिर वहीं,रहता था पहले जहाँ।

दे-देकर दुहाई, हाथ पसारे मैं रोता-गिड़गिड़ाता रहा।
मगर  बेरहम खुदा, दूर आसमाँ में जाकर कहीं सो गया।

तब से हर पल मर-मरकर जी रहा हूँ
अपनी लगाई आग में खुद ही जल रहा हूँ।
इक आस बाकी है अभी दिल के किसी कोने में
कि इक दिन आएगा खुदा,मुझपर तरस खाकर
और पकड़ ले जाएगा इसे,
अपने झोले में डालकर।

तब सींचूँगा इस जमीं को
सिर्फ प्रेम के जल से।
रोपूँगा प्रेम के पौधे,
जिनपर मुस्कराएंगीं प्रेम की कलियाँ
प्रेम का गुलाल लेकर।

लहराऐंगीं घटाऐं
प्रेम का आँचल बनकर।
बरसेंगे प्रेम के मोती
और महक उठेंगीं फिज़ाऐं,
प्रेम का श्वास लेकर
प्रेम का श्वास लेकर
प्रेम का श्वास लेकर...............


Sunday, 26 April 2015

खुशियाँ रात मना रहा था 'भारत'

खुशियाँ रात, मना रहा था भारत
गीत खुशी के,  गा रहा था भारत
बावन पत्तों में,       गाँठ बरस की
झूम-झूमकर, लगा रहा था भारत
खुशियाँ रात, मना रहा था भारत

सपने भोर के,   खुलने लगे थे
बिछुड़े रात जो, मिलने लगे थे
नये रंगों में,         रंगने लगे थे
उमंगें दिलों में,    भरने लगे थे

रजनीगन्धा,   कुम्हलाया नहीं था
कमल अभी,   मुस्काया  नहीं था
खग-कुल चमन में, आया नहीं था
मृग अभी,       मस्ताया  नहीं था

खुशियाँ मगर, मना रहा था भारत
सपने नये,     सजा रहा था भारत
पुष्प-पोटली,          बाँध-बाँधकर
तिरंगा ऊँचा,  चढ़ा रहा था भारत
खुशियाँ रात, मना रहा था  भारत

खींच डोर,   तिरंगा फहराया
क्षण-भर था, भारत मुस्काया
मगर,   रखा था जो प्रेम-पुष्प
रक्त-पुष्प बन,  धरा पर आया

जण-गण-मण,      नहीं पड़ा सुनाई
चहुँ ओर से, बस, चीत्कार ही आई
पलभर में,             सन्नाटा छाया
महाप्रलय का,    ऐसा झोंका आया

राजपथ में,   मगर नाच रहा था भारत
तिरंगा किले पर, फहरा रहा था भारत
निज खंड़हर में,              दबा-भिंचा
निश्चल पड़ा,     कराह रहा था भारत
खुशियाँ रात,       मना रहा था भारत

सुनो जरा,            ओ सुनने वालों
अब तो जरा तुम,      कान लगा लो
जनसंख्या की,  इस आँधी को रोको
और आने वाली, नस्लों को बचा लो

कंक्रीट के,       इन वनों को काटो
और धरा को,      बसंती रंग डालो
ऐसा दिवस,         ना देखे  भारत
हो सके तो, बस यह वचन उठा लो

ताकि, खुशियाँ रोज मनाये यह भारत
तिरंगा गगन में, फहराये     यह भारत
सारी दुनिया,          कदम चूमे इसके
इतना नाम,     कमाये यह       भारत
खुशियाँ रोज, मनाये   यह       भारत
खुशियाँ रोज,     मनाये यह     भारत ................

.

(ये आर्त उदगार २६ जनवरी २००१ की सुबह गुजरात में आए भीषण भूकंप की त्रासदी से पीड़ित मन में उसी शाम आए थे। नेपाल की विपदा ने पुराने घाव हरे कर दिए)

Tuesday, 3 February 2015

-: एक :-

मानव सभ्यता के इतिहास में संभवतः प्रकृति को मानव की ओर से मिलने वाला अंतिम "अंशदान" था "मानव मल"।

परंतु आधुनिक होती मानवता ने उसे भी कंक्रीट के खाँचों में बाँधकर प्रकृति को उससे भी वंचित कर दिया है।

आगे अब मानव प्रकृति का सिर्फ और सिर्फ दोहन करेगा।


Tuesday, 6 January 2015

जीवन की खोज

इधर-उधरकी बातें करते रात जब काफी बीत गई तो मैं अपने कमरे में आकार बिस्तर में लेट गया। बातचीत का विषय बस वही था दुनिया भर की मार-धाड़, खून-खराबा और बर्बर हिंसा।

काफी देर तक करवटें बदलते हुए मैं यही सोचता रहा कि एक ओर तो हम अरबों-खरबों रुपया फूँककर दूसरे ग्रहों पर जीवन का चिन्ह मात्र खोजने को लालायित फिर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर अपने ही भाई-बंधुओं का खून बहाकर, भाँति-भाँति से प्रकृति को उजाड़कर अपनी इसी हरी-भरी पृथ्वी से जीवन के चिन्ह भी मिटा देने पर आमादा हैं। आखिर हम जा किधर रहे हैं।

मैं अभी इन्हीं विचारों में डूबा हुआ था कि तभी एक विचित्र सी आवाज ने मेरी इस चिंतन धारा को रोक दिया। उत्सुकतावश उठकर मैं खिड़की के समीप पहुँचा तो यह देखकर मेरी आँखें फैल गईं कि आकाश से एक विशाल प्रकाशपुंज मंथर गति से नीचे उतर रहा है। कुछ ही देर बाद वह प्रकाशपुंज सामने विशाल मैदान के बीच उतरा तो उसकी आकृति-प्रकृति देखकर मैंने यही अनुमान लगाया कि हो न हो यह अवश्य ही कोई अंतरिक्ष यान ही है।

उत्सुकता के साथ-साथ अब जिज्ञासा भी बढ़ाने लगी थी। अत: मैं तुरंत उसके पास पहुँचा। परंतु अभी मैं कोई ५०-६० गज के फासले पर ही था कि यान का द्वार खुला और तीन लगभग पारदर्शी परछाई सी आकृतियां यान से बाहर आईं। उन्हें देखते ही मैं एक वृक्ष की ओट में खड़े होकर उनकी गतिविधियों को निहारने लगा।

यान से बाहर आकर उन्होंने कुछ देर इधर-उधर कुछ निरिक्षण किया और फिर एक दिशा में बढ़ गईं। कुछ दूर तक मैंने उनके पीछे दृष्टि दौडाई परंतु फिर वे रात के अंधेरे में गुम हो गईं। मैं कुछ देर यूँ ही खड़ा रहा फिर थोड़ा साहस बटोर कर यान के पास पहुँचा। यान का द्वार अभी भी खुला था। चारों ओर चौकन्नी दृष्टि दौड़ते हुए मैं सीढ़ियों से होता हुआ यान के द्वार पर पहुँचा। परंतु अंदर कदम रखते ही ठिठक गया। यान के भीतर दो लगभग मानवाकार आकृतियां मौजूद थीं। आकृतियां इसलिए कि उनका चाल-ढाल तथा कार्यप्रणाली यंत्रों के समान थी परंतु शारीरिक दृष्टि से उन्हें यंत्र नहीं कहा जा सकता था।
- "यान पर आपका स्वागत है, श्रीमान!" उनमें से एक ने मुझे देखते ही अपनी यांत्रिक आवाज में कहा।
- "कौन हैं आप लोग ?" मैं उन्हें अपलक निहार रहा था कि अनायास ही यह प्रश्न मेरे मुख से निकल पड़ा।
- "हम यहाँ से लाखों प्रकाशवर्ष दूर एक ग्रह के अर्द्ध मानव हैं।"
- "अर्द्ध मानव.......?" मैं चौंका।
- "जी हाँ, हमारे ग्रह पर भी ठीक पृथ्वी के समान ही विकसित सभ्यता है। वहीं के मनुष्यों ने क्रत्रिम मानव अंगों का निर्माण कर हमारा आविष्कार किया है। परंतु भूमि, जल, अग्नि और वायु इन चार तत्वों के सहारे उन्होंने शरीर के सभी घटक तो बना लिए किंतु पाँचवें आकाश तत्व के साथ वे सामंजस्य नहीं बिठा पाए। जिसके कारण हमें मानवीय क्रियाऐं करने के लिए कुछ यांत्रिक साधनों का उपयोग करना पड़ता है।" उसने विस्तार से समझाया।
- "परंतु वे जो अभी यान से बाहर गए ........?"
- "वे आपके पडौसी शुक्र ग्रह के ही प्राणी हैं।"
- "व्हाट......!!?? मेरे दिमाग को जैसे बिजली के तार ने छू दिया हो, "शुक्र ग्रह........लेकिन वहाँ तो ठोस धरातल की भी आशा नहीं है। और वहाँ के वातावरण में जीवन.........!!!??? असंभव।"

- "जी नहीं यह पूर्णतः सत्य है, और इतना ही नहीं, यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड ही स्वयं चैतन्य है।"

- "तुम्हारा मतलब है कि ब्रह्माण्ड के प्रत्येक ग्रह-उपग्रह पर जीवन है!!!???"

- "जी हाँ......और केवल ग्रह-उपग्रह पर ही नहीं संपूर्ण अंतरिक्ष-सूर्य-तारों आदि सभी जगहों पर जीवन उपस्थित है। हाँ यह अवश्य है कि वहाँ जीवन एकल या द्वी तत्वों पर आधारित है। जैसे अंतरिक्ष में केवल आकाश या सूर्य पर केवल अग्नि तत्व से तथा मंगल व ब्रहस्पति पर भूमि और वायु तत्वों पर आधारित जीवन है। पंचतत्वों पर आधारित जीवन ब्रहमाण्ड के मात्र कुछ ही ग्रहों पर विकसित हो सका है।"

उसकी बातें सुनकर मेरा आश्चर्य चरम सीमा पर पहुँच रहा था, "क्या तुम अपने इस कथन को प्रमाणित कर सकते हो!!!???" मैंने रोमांचित होते हुए पूछा।

- "अवश्य.......।" उसने तुरंत उत्तर दिया, "अभी-अभी यान से बाहर गए केवल जल और वायु तत्वों से निर्मित तीनों शुक्र ग्रह वासी इसका स्पष्ट प्रमाण हैं। फिर भी यदि आप चाहें तो हम आपके इच्छित किसी भी स्थान पर ले जाकर आपको अपनी आँखों से सब कुछ स्पष्ट दिखाकर प्रमाणित कर सकते हैं। कहिए कहाँ चलना चाहेंगे?"
- "मंगल पर....." मेरे मुख से अनायास ही निकल पड़ा। वैसे भी मंगल के बारे में काफी कुछ पढ़-सुन रखा था अत: यह थोड़ा परिचित स्थान भी था।

- "ठीक है........" कहते ही यान का द्वार बंद हो गया और अगले ही क्षण यान एक झटके के साथ उसी मंथर गति से ऊपर उठाने लगा और फिर अचानक किसी उल्का पिंड की तरह तेजी से अंतरिक्ष दौड़ पड़ा।
अगले ही क्षण मैंने देखा कि यान धीरे-धीरे मंगल की सतह की ओर बढ़ रहा है। सतह पर पहुँचते ही यान का द्वार खुल गया।

- "हम मंगल ग्रह पर पहुँच चुके हैं। आइए बाहर चलें....।" उनमें से एक ने कहा।

- "परंतु बिना स्पेस सूट......!!!??"

- "यहाँ हम केवल भूमि तत्व के रूप में ही विचरण करेंगे। और चूँकि भूमि तत्व के लिए यहाँ पूर्णतः अनुकूल परिस्थतियाँ हैं इसलिए यहाँ किसी भी तरह के स्पेन सूट की आपको कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगी।"

उसी समय यान में अपने ही पाँच-पाँच प्रतिरूप देखकर मेरे आश्चर्य की सीमा न रही। फिर उनमें से एक प्रतिरूप यान से बाहर आ गया।
बाहर आकर मुझे वहाँ सबकुछ अपने ही समान सजीव-चैतन्य दिखाई पड़ रहा था। हाँलाकि प्रायः सभी पदार्थ जड़ थे परंतु उनकी विभिन्न भौतिक-रासायनिक क्रियाऐं जीवन के स्पष्ट संकेत दे रहीं थीं। बार-बार मेरा मन चाहता कि मैं भी उन सभी में विलीन हो जाऊँ। परंतु कोई शक्ति मुझे रोक लेती। एक-एक कदम रखते हुए लगता कि पैर से दबकर किसी पदार्थ को कोई क्षति न पहुँच जाय। वहाँ के कण-कण को अपने सीने से लगा लेने के लिए मेरा ह्रदय उमड़ा पड़ता था। इतनी संवेदना तो मुझे स्वयं अपने प्रति भी कभी महसूस नहीं हुई थी।

कुछ देर पश्चात मैं वापस यान में लौटा तो मेरा रोम-रोम रोमांचित हो रहा था।
- "परंतु सूर्य पर किस प्रकार का जीवन होगा! क्या वहाँ पहुँचना भी संभव है ?" मैंने अत्यधिक रोमांचित होते हुए पूछा।

- "हाँ, बिल्कुल......"

और इतना कहते ही यान सूर्य की ओर चल पड़ा।

सूर्य पर पहुँचते ही मेरा अग्नि प्रतिरूप मुझसे पृथक होकर यान से बाहर आ गया। वहाँ का दृश्य बड़ा भयावह था। प्रतिक्षण असंख्य छोटी-छोटी चिंगारियां जन्म लेतीं परंतु उनमें से अधिकांश को तुरंत ही कोई विशाल ज्वाला निगल जाती तथा ओर अधिक विशाल व शक्तिशाली होकर फुँफकारने लगती। बहुत कम चिंगारियां ही स्वयं को उनसे बचा पातीं और वे भी शीघ्र ही अन्य दुर्बल चिंगारियों का भक्षण करके भयानक ज्वालाओं में बदल जातीं।
विशालकाय ज्वालाओं में निरंतर भयंकर युद्ध चल रहा था। प्रत्येक पराजित ज्वाला या तो विजेता का आहार बन जाती या फिर तुरंत अंतरिक्ष में पलायन कर एक अंजान यात्रा पर निकल पड़ती।
मैं स्वयं उनके सम्मुख एक सूक्ष्म चिंगारी के समान ही था। अचानक एक दैत्याकार ज्वाला की नजर मुझपर पड़ी तो वह तुरंत जीभ लपलपाते हुए मुझपर झपट पड़ी। मैंने फुर्ती से किसी प्रकार उसके वार को बचाया और लपक कर यान के भीतर आ गया। और यान तुरंत अंतरिक्ष में आ गया।

- "ओर क्या देखना चाहेंगे श्रीमान ?" उनमें से एक ने मुस्कुराते हुए मुझसे पूछा।

- "कुछ नहीं, तुरंत पृथ्वी पर चलिये।" मैंने अपनी घबराहट और तेज चलतीं सांसों को नियंत्रित करने की असफल कोशिश करते हुए कहा।।

कुछ ही क्षणों पश्चात यान पृथ्वी पर पुनः उसी स्थान पर उतरा। मैंने जल्दी से बाहर आकर इधर-उधर देखा।
- "वे लोग तो शायद अभी तक भी नहीं लौटे हैं..........लेकिन वे यहाँ क्या करने के लिए आए हैं ?"
- "वही... जो आप तथा दूसरे प्राणी करने के लिए दूसरे ग्रहों की यात्राएँ किया करते हैं।"

- "मतलब.......?"

- "वही.... जीवन की खोज।"

- "यानी वे यहाँ अपने समान सभ्यता की खोज करने के लिए आए हैं!!??"

- "जी हाँ। कुछ समय पहले जब हमारा यान शुक्र ग्रह के पास से गुजरा तो इनकी दृष्टि पड़ गई और इन्होंने तुरंत हमें अपने नियंत्रण में ले लिया। पृथ्वी पर भारी मात्रा में जल की उपस्थिति का इन्हें पहले ही पता लग चुका था। अत: आज हमें साथ लेकर वे यहाँ अपने समान सभ्यता की खोज में पृथ्वी पर आ पहुँचे। यहाँ आने के बाद  हमारे काफी समझाने के बावजूद वे इस खोज में यान से बाहर भी चले गए।"

- "लेकिन अब......?"

- "अब क्या....... अब तो वे कभी के या तो वाष्पित होकर वायुमंडल में मिल गए होंगे या जमीन में अवशोषित हो गए होंगे या फिर लुढकते हुए किसी नदी-नाले में जा गिरे होंगे।"

उनकी बातें सुनकर मेरा दिमाग बुरी तरह झन्ना रहा था।
- "और अब आप.......?"मैंने किसी तरह स्वयं को संयत करते हुए पूछा।

- "हमें भी बरसों पहले ब्रह्माण्ड में अपने ग्रह के समान सभ्यता की खोज में ही अंतरिक्ष में भेजा गया था। हमारा यह अभियान पूरा हुआ। अत: अब हम वापस अपने ग्रह पर ही लौटेंगे। आप हमारे ग्रह वासियों को पृथ्वी वासियों की ओर से कोई संदेश देना चाहेंगे ?"

- "संदेश......, हाँ-हाँ.....," मैंने थोड़ा गंभीर होते हुए कहा, "सभ्यता चाहे जो भी हो मैं बस यही कहना चाहूँगा कि हमें पदार्थ से नहीं अपितु प्रकृति से प्रेम करना चाहिए।"

उन्होंने एक बार फिर मेरी ओर देखा और फिर धीरे से यान का द्वार बंद कर लिया। अगले ही क्षण यान धीरे-धीरे ऊपर उठाने लगा।

मैं हवा में हाथ हिला-हिलाकर उन्हें विदाई दे रहा था कि अचानक मेरा हाथ जोर से किसी चीज से टकराया। मैंने चौंककर इधर-उधर देखा तो स्वयं को अपने बिस्तर पर बैठे पाया। एक-दो बार सिर को जोर से झटका तो वस्तुस्थिति स्पष्ट हुई कि यह सब मात्र स्वप्न था। एक विचित्र स्वप्न.... जिससे जगने के बाद मुझे कमरे में रखी किताबें, दीवारें, मेज, कुर्सी, घड़ी, कलम यहाँ तक कि कण-कण आपस में कुछ फुसफुसाता लग रहा था और स्वयं को पूर्ण चैतन्य प्रमाणित कर रहा था।

मैंने उठकर थोड़ा पानी पिया और फिर लेट गया। परंतु देर तक यही बात मेरे मन में घुमड़ती रही कि हम किस प्रकार के जीवन की खोज में जुटे हुए हैं। क्या अपने फुटपाथों बिलबिलाते हुए लावारिस बच्चों को छोड़कर अंतरिक्ष में खिलखिलाते बच्चे खोज पाना संभव होगा ? क्या क्लोन बना लेने से वह लावारिस बच्चा मुस्कुराने लगेगा ? शायद नहीं....। क्योंकि अंतरिक्ष में जीवन खोजने या प्रयोगशाला में जीवन बनाने से पहले हमें उन मासूमों की आँखों से गिरने वाली एक-एक बूँद में जीवन खोजना होगा, जीवन पनपाना होगा। अन्यथा इन संवेदना रहित प्रयोगशालाओं और संज्ञाहीन अंतरिक्ष में रहते-रहते हमारे भीतर का मनुष्य भी संवेदनाहीन पाषाण से अधिक कुछ नहीं रह जाएगा।
           *******

Friday, 2 January 2015

गम-ए-मोती

हँसते-मुस्कुराते चला था मैं वहाँ से
मजे लूटने           इस   जहाँ    के।
मगर                          अफसोस
खुद ही लुट रहा मैं    दीवाना  यहाँ।

ना पूछो कि किस-किसने लूटा
मुझे तो मेरे     अपनों  ने लूटा।

अपनों ने लूटा,     बेगानों लूटा
यारों ने लूटा,  मक्कारों ने लूटा
चोरों ने लूटा, धनकुबेरों ने लूटा
दरिया ने लूटा, किनारों ने लूटा
मुझे तो मेरी नौका ने भी   लूटा.......

पतझड़ ने लूटा,   बहारों ने लूटा
मद की रिमझिम, फुहारों ने लूटा
सागर ने लूटा,       मेघों ने लूटा
फूलों ने लूटा,   कलियों ने लूटा
मुझे तो चमन के रखवालों ने भी लूटा......

चंदा ने लूटा,     सितारों ने लूटा
शरद की बहकतीं, बयारों ने लूटा
अंधेरों ने लूटा,  उजालों ने लूटा
ख्वाबों ने लूटा,  छलावों ने लूटा
ओरों की क्या कहूँ           यारों
मुझे तो उस बनाने वाले ने भी लूटा.......

मैं लुटता रहा,       मुस्कुराता रहा
गम-ए-मोती, जिगर में सजाता रहा
ये मोती,             बड़े हैं प्यारे मुझे
पाएं हैं,     सबकुछ लुटाकर ये मैंने
ना दूँगा उधार,       यदि कोई माँगे
डरता हूँ, इनसे बिछुड़कर      कहीं
खो न जाऊँ, मैं भी इस     जहाँ में......

ये मोती ही तो अब, पहचान हैं मेरी
ये मोती ही तो अब,  शान   हैं मेरी
इन मोती में ही अब, जान है भी मेरी
इन मोती से ही सजेगा ज़नाज़ा मेरा......

इन्हें तो संग            ले जाऊँगा मैं
उस                              जहाँ में
हँसते-मुस्कुराते चला था मैं जहाँ से
मजे लूटने                 इस जहाँ के.........