दृश्य १.
[२१ वीं शदी के अंतिम दशक की एक विशाल प्रयोगशाला, जिसकी दीवारों व छत का प्रत्येक छोटे से छोटा भाग भी किसी न किसी यंत्र के पीछे छिपा है। दर्जन भर से भी अधिक बेडौल सी आकृति-प्रकृति के यंत्र प्रयोगशाला में इधऱ-उधर चहलकदमी करते दिखाई पड़ रहे हैं। जो दूसरे यंत्रों का संचालन करने के साथ-साथ आवश्यक सामग्री का आदान-प्रदान भी कर रहे हैं।
विभिन्न यंत्रों से उत्पन्न होने वाली धीमी ध्वनियाँ मिश्रित स्वर में किसी बीहड़ जंगल में अनेक कीटों द्वारा उत्पन्न ध्वनि का आभास दिला रहीं हैं।
तभी प्रयोगशाला का द्वार खुलता है और विश्व के महान वैज्ञानिक डा मनु एक सामान्य वेषभूषा में प्रयोगशाला में प्रवेश करते हैं और एक बड़ी ही नियंत्रित दृष्टि पूरी प्रयोगशाला की व्यवस्था पर डालते हैं। फिर एक अलमारी की ओर बढ़ते हैं जो उनके निकट पहुँचने पर स्वतः ही खुल जाती है। तब डा. मनु कवच सदृश कुछ यंत्र उसमें से निकालकर अपने हाथों, सर व सीने पर लगा लेते हैं और अपने कार्य में जुट जाते हैं।
उसी समय एक दिव्य ज्योति प्रयोगशाला में प्रकट होती है और एक मनुष्य का रूप धारण करती है। उसकी वेषभूषा पन्द्रहवीं शताब्दी के किसी विद्वान पंडित के समान है परन्तु मुख मण्डल पर एक अनुपम तेज है]
डा.मनु - (चौंककर, तेज़ी से) कौन........., कौन हो तुम? सावधान, अपनी जगह से हिलना नहीं!
अजनबी - (शान्त स्वर में) हम ब्रह्मदूत हैं, आपको अपने साथ ले चलने के लिए आए हैं।
डा. मनु - कौन ब्रह्मदूत? (विचलित होते हुए) कहाँ ले जाना चाहते हो मुझे???
ब्रह्मदूत - मुझे पूज्य श्री परमपिता ब्रह्मा जी ने आपको ब्रह्मलोक लिवा लाने के लिए भेजा है।
डा. मनु - (लापरवाही से) कौन ब्रह्मा? मैं किसी ब्रह्मा को नहीं जानता। (कुछ याद करके) अरे हाँ..... कहीं तुम उन ब्रह्मा जी के बारे में तो बात नहीं कर रहे जिन्हें पहले सृष्टि का जनक कहा जाता था !?
ब्रह्मदूत - जी हाँ , उन्हीं ने मुझे यहाँ दूत बनाकर भेजा है।
डा. मनु - (शंकित दृष्टि से) इसका कोई प्रमाण?
ब्रहमदूत - (तनिक क्रुद्ध होकर) (तेज़ी से) हमें झूठा कहकर तुम हमारा अपमान कर रहे हो, मनुष्य....।
डा. मनु - (हँसते हुए) नहीं-नहीं क्रोधित मत होईये ब्रह्मदूत जी, मेरा यह मतलब नहीं था। मैं तो जानना चाहता था कि आखिर ब्रह्मा जी को मुझ अकिन्चन की क्या आवश्यकता आन पड़ी!!!???
ब्रह्मदूत - (शान्त होकर) यह तो तुम्हें उनके पास चलकर ही ज्ञात हो सकेगा। चलिए जल्दी तैयार हो जाईए।
डा. मनु - (व्यंग्यात्मक स्वर मेंं) यदि मैं मना करूँ तो....?
ब्रह्मदूत - (तुनककर) मूर्ख...... मनुष्यों ने तो उनका एक दर्शन पाने मात्र के लिए सैकड़ों-सैंकड़ों वर्षो तक भूखे-प्यासे रहकर तपस्या की है और तुम्हें जब उन्होंने स्वयं याद किया है तो तुम मना कर रहे हो!!!
डा. मनु - अरे नहीं ब्रह्मदूत जी...... मैं तो ये कह रहा था कि इतनी भी क्या जल्दी है, अभी तो आप इतनी दूर से आए हैं..... थोड़ा विश्राम तो किजिये। फिर चलते हैं।
ब्रह्दूत - नहीं, हम यहाँ अधिक देर नहीं रुक सकते। ब्रह्मदेव ने हमें कठोर आदेश दिए हैं कि हम यहाँ किसी भी वस्तु को स्पर्श न करें।
डा. मनु - (विस्मित होकर) परन्तु...ऐसा क्यों.....??
ब्रह्मदूत - क्योंकि तुमने प्रकृति के कण-कण को तोड़-मरोड़कर रख छोड़ा है। जिससे यहाँ सबकुछ हमारे लिए अत्यन्त अविश्वसनीय हो गया है। अब वार्तालाप में समय नष्ट मत करो और अतिशीघ्र प्रस्थान के लिए तैयार हो जाओ।
डा. मनु - (लाचारी पूर्वक) ठीक है.... अब आप जिद्द पर अड़ ही गये हैं तो चलिए.......इस बहाने आपके ब्रह्मलोक भी घूम आऐंगे।
ब्रह्मदूत - चलिए....... (रुककर) पहले अपने ये आभूषण यहीं उतार दीजिए।
डा. मनु - (आश्चर्य से) आभूषण.....!!!??? (हँसते हुए) ओह..., अच्छा-अच्छा....।
[डा. मनु यंत्रों को उतार कर रख देते हैं और फिर दोनों अंतर्ध्यान हो जाते हैं]
दृश्य २.
[डा मनु एक विचित्र स्थान पर आश्चर्य से चारों ओर देखते हुए अकेले अकेले चले जा रहे हैं। चारों ओर अपूर्व शान्ति है। वे जिधर देखते हैं उन्हें विभिन्न रंगों से प्रकाशित असंख्य तारे दिखाई पड़ते हैं]
डा मनु - क्यों ब्रह्मदूत जी, अभी कितनी दूर बाकी है अपका ब्रह्मलोक?
[डा मनु चारों ओर देखते हैं परन्तु वहाँ उनके अतिरिक्त कोई नहीं है]
डा मनु - (घबराकर) अरे ब्रह्मदूत जी......(तेजी से) ब्रह्मदूत जी!!........ओह नो......यह ब्रह्मदूत मुझे यहाँ छोड़कर कहाँ गायब हो गया!!??(चिंतित होकर अपने-आप से)अब मुझे क्या करना चाहिए!!!
[तभी ब्रह्मदूत की आवज सुनाई पड़ती है]
ब्रह्मदूत की आवज - शान्त रहो मनुष्य, शान्त रहो........!
डा मनु - (चौंककर) अरे ब्रह्मदूत जी, आप हैं कहाँ? (कुछ परेशान होकर) देखिए ब्रह्मदूत जी, मुझे न तो यहाँ से ब्रह्मलोक का रास्ता पता है और न ही मैं ब्रह्मदेव जी को पहचानता हूँ। देखिए प्लीज़ पहले एक बार उनसे मेरा परिचय करा दीजिए, फिर कहीं चले जाइएगा।
ब्रह्मदूत की आवाज - शान्त रहो मनुष्य, उत्तेजित होने की आवश्यकता नहीं है। ब्रह्मदेव जी के आदेशानुसार तुम ओर आगे नहीं जा सकते। ब्रह्मदेव स्वयं यहीं आकर तुमसे मिलेंगें।
डा मनु - परन्तु ऐसा क्यों???!!!
ब्रह्मदूत की आवाज - तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर भी तुम्हें उन्हीं से मिल सकता है।
[चारों ओर पूर्ववत शान्ति छा जाती है। डा मनु कातर दृष्टि से चारों ओर देखने लगते हैं। अचानक एक अत्यन्त तीव्र प्रकाश बिम्ब प्रकट होता है। जिससे आँखों को चौंधिया देने वाला प्रकाश निकलकर चारों ओर फैलने लगता है। साथ ही मन को लुभा लेने वाला एक धीमा-मधुर संगीत भी गूँजने लगता है। डा मनु प्रकाश की चकाचौंध से बचने का प्रयास करते हुए कुछ देखने की चेष्टा करते हैं। उसी समय एक अनूठी सुगन्ध फैलती है और कमल पुष्प पर विराजमान ब्रह्मदेव प्रकट होते हैं। उनके उस अद्वितीय तेजोमय रूप को देखकर डा मनु का हृदय भावविहृल हो उठता है और वे न चाहते हुए भी ब्रह्मदेव के चरणों में गिर पड़ते हैं]
ब्रह्मदेव - तुम्हारा कल्याण हो वत्स! उठो.....उठो वत्स!!
डा मनु - (खड़े होकर, शिकायत पूर्ण स्वर में) ब्रह्मदेव! जब आपने मुझे पृथ्वी से यहां तक बुलवा लिया तो फिर ब्रह्मलोक तक जाने से क्यों रोक दिया?
ब्रह्मदेव - वत्स! तुम्हारे मन में ज्ञान प्राप्ति की जो प्यास जगी है, मैं उससे भली भांति परिचित हूँ। परन्तु जब तक तुम इस सृष्टि के दूसरे रहस्यों को नहीं सुलझा लेते तब तक तुम ब्रह्मलोक नहीं पहुँच सकते।
डा मनु - बह्मदेव! क्या सचमुच इस सम्पूर्ण सृष्टि की रचना आप ही ने की है!?
ब्रह्मदेव - हाँ वत्स, यह सम्पूर्ण सृष्टि मेरे द्वारा ही रची गई है।
डा मनु - (आश्चर्य से) परन्तु ब्रह्मदेव! आपने यह सब किस प्रकार किया!?कृपा करके मुझे इसके बारे में सबकुछ विस्तार से बतलाइए!
ब्रह्मदेव - (हँसते हुए) वत्स, तुम्हारी ज्ञान प्राप्ति की प्यास किस स्तर तक बढ़ चुकी है, मुझे यह देखकर एक सुखद आश्चर्य हो रहा है। परन्तु........।
डा मनु - परन्तु क्या......ब्रह्मदेव? क्या मुझसे कोई त्रुटि हुई है? अथवा आप मुझसे रुष्ट हैं??
ब्रह्मदेव - नहीं-नहीं पुत्र....मैं तो तुमसे अति प्रसन्न हूँ। ज्ञान प्राप्ति की तुम्हारी इसी लम्बी अटूट तपस्या के फलस्वरूप ही आज तुम्हें मेरा दर्शन प्राप्त हुआ है। परन्तु पृथ्वी पर हो रहे तुम्हारे ज्ञान के दुरुपयोग को देखकर हम भूलोक के भविष्य लिए चिंतित हैं!
डा मनु - मेरे ज्ञान का दुरुपयोग !!! अर्थात् विज्ञान का दुरुपयोग!!! (हँस कर) ब्रह्मदेव! आपको निश्चय ही या तो भ्रम हुआ है अथवा किसी ने हमारी प्रगति से जलकर आपके कान भरे हैं।आप ऐसे लोगों की बातों पर ध्यान मत दीजिए।
ब्रह्मदेव - (क्रमशः तीव्र होते स्वर में) मुझे किसी से भी जानकारी प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं पड़ती वत्स, मैं स्वयं सबकुछ स्पष्ट देख सकता हूँँ। प्रकृति का बिगड़ता सन्तुलन, क्या तुम्हारे विज्ञान के दुरुपयोग का परिणाम नहीं है? मैंने दिन के समय प्रकाश हेतु सूर्य की व्यवस्था की थी, तुम्हें दिन के समय भी रात के अंधकार की आवश्यकता पड़ी। तुमने उसका प्रबन्ध कियाा। मैंनें विश्राम हेतु रात व रात को अन्धकारमय बनाया। परन्तु तुमने दिन के प्रकाश से भी अधिक प्रकाश का प्रबन्ध कर लिया......। तुमने यह सब ज्ञानार्जन हेतु किया, उचित है। परन्तु वह मनुष्य जिन्हें सूर्यास्त के पश्चात प्रकाश की आवश्यकता नहीं है, वे भी तुम्हारी तरह रात में प्रकाश उतपन्न करते हैं और दिन के समय कृत्रिम अन्धकार में सोते हैं। क्या यह विज्ञान का दुरुपयोग नहीं है? तुमने पृथ्वी को खोदा, जल को बाँधा, वायु को रोका.....किन्तु यह सब किया केवल ज्ञानार्जन के लिए। परन्तु वह लोग जिन्हें इसकी कोई विशेष आवश्यकता नहीं, क्या वे ऐसा करके विज्ञान का दुरुपयोग नहीं कर रहे हैं???
डा मनु - परन्तु हे परमपिता! जैसा कि अभी आप ने स्वीकार किया कि मैंने जो कुछ किया ज्ञान प्राप्त करने के लिए किया, अतः अब यदि वे मेरे इस ज्ञान का उपयोग धन प्राप्ति के लिए कर रहे हैं, निज सुख के लिए कर रहे हैं तो इसमें दुरुपयोग कैसा!?
ब्रह्मदेव - (पीड़ा भरे स्वर में) विज्ञान का उपयोग बुरा नहीं है वत्स! परन्तु विज्ञान का उपभोग बुराई की परिसीमा है......और वे इसका उपभोग कर रहे हैं, उपयोग नहीं। विज्ञान के उपभोग ने उन्हें आलसी, अकर्मण्य, कमजोर व कामी बना दिया है।
डा मनु - परन्तु, इसमें मैं क्या कर सकता हूँ!!! जिस प्रकार मेरे जीवन का लक्ष्य ज्ञानार्जन है, उसी प्रकार उनका लक्ष्य धनार्जन है।
ब्रह्मदेव - (कठोरता के साथ) नहीं वत्स, नहीं.....धनार्जन मानव जीवन का लक्ष्य कदापि नहीं हो सकता।
डा मनु - क्यों ब्रह्मदेव, यदि ज्ञानार्जन मानव जीवन का उद्देश्य हो सकता है तो धनार्जन मानव जीवन का उद्देश्य क्यों नहीं हो सकता?!
ब्रह्मदेव - क्योंकि संसार में धन अर्थात सन्साधनों की एक सीमित मात्रा है। और जब दो प्राणियों का उद्देश्य उस पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करना बन जाएगा तो शीघ्र ही उनके बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी तथा संघर्ष से केवल विनाश होता है, प्रकृति का विनाश, मानवता व मानवता के मूल्यों का विनाश, ज्ञान का विनाश, विज्ञान का विनाश और विनाश होता प्राणी मात्र का........।
डा मनु - परन्तु ब्रह्मदेव! आपने मुझे किस लिए याद किया?
ब्रह्मदेव - हम चाहते हैं कि तुम पृथ्वी पर हो रहे विज्ञान के दुरुपयोग को रोको। ताकि पृथ्वी पर होने वाले काल के भीषण विनाश के ताण्डव को रोका जा सके।
डा मनु - परमपिता, मैंने तो सुना है कि इस ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी होता है, सब आपकी आज्ञा अनुसार ही होता है। आप ही सबके भाग्य विधाता है। अब यदि आपने पृथ्वी और पृथ्वी वासियों के भाग्य में यह विनाश ही लिखा है तो भला मैं उसे किस प्रकार बदल सकूँगा?
ब्रह्मदेव - मैं तुमसे एक प्रश्न करता हूँ, पुत्र......।
डा मनु - (किन्चित उलझन के साथ) कैसा प्रश्न ब्रह्मदेव!?
ब्रह्मदेव - तुमने पृथ्वी पर अपनी सहायता के लिए बहुत से यंत्रों का सृजन किया है। तुम उनके बारे में क्या बता सकते हो?
डा मनु - (उत्साहित होकर) उनके बारे में तो मैं सब कुछ पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि वह किस समय क्या कार्य करेंगे, किस प्रकार कार्य करेंगे, कितने समय तक कार्य करेंगे आदि आदि.....।
ब्रह्मदेव - परन्तु यदि में तुम्हारे उन यंत्रों के ऊर्जा स्रोत बदल दूँ, उनमें लगे विभिन्न उपकरणों को बदल दूँ, तो क्या तब भी तुम इसी विश्वास के साथ उनके बारे में कुछ कह सकोगे?
डा मनु - तब तो शायद असम्भव हो जाएगा......।
ब्रह्मदेव - आज पृथ्वी पर भी यही हो रहा है। जो वायु प्राणदायी थी, आज प्राणाहारी बन चुकी है। जल, जो जीवन दायक था, आज जीवन नाशक बना हुआ है। (अत्यंत दुखी होकर) तुम मनुष्य तो यान्त्रिक प्रबन्ध करके कुछ समय ओर इनके दुष्परिणामों से स्वयं को बचा कर लोगे, परन्तु दूसरे प्राणी तो तड़प-तड़पकर दम तोड़ रहे हैं। उन्होंने तो तुमसे, तुम्हारे विज्ञान से कुछ भी नहीं माँगा था। फिर उन्हें किस बात का दण्ड......???
(ब्रह्मदेन का स्वर अत्यन्त करुण हो जाता है)
यह समूची पृथ्वी मेरी समस्त रचनाओं में अनमोल है......और उससे भी महत्वपूर्ण हैं इस पर वास करने वाले प्राणी......। मैं इनकी यह दुर्दशा देखकर अत्यन्त दुखी हूँ!
डा मनु - परन्तु ब्रह्मदेव! मैं इसे किस प्रकार रोक सकता हूँ? कृपया इसका उपाय भी बताइए!
ब्रह्मदेव - इसका तो मात्र एक ही उपाय है कि तुमने जो ज्ञान, जो विज्ञान पृथ्वी पर बिखेरा है, उसे समेट लो, छीन लो उन मनुष्यों से जो उसका सदुपयोग नहीं कर सकते.......। विज्ञान कोई खिलौना नहीं है, पुत्र! विज्ञान तो ज्ञान प्राप्ति का अमोघ अस्त्र है। धन प्राप्ति के लिए इसका प्रयोग सर्वथा दुरुपयोग है। विज्ञान का विनाशकारी दुरुपयोग......।
डा मनु - परन्तु भगवन! मैं अब उसे वापस कैसे ले सकता हूँ? और फिर क्या ऐसा करने से मैं संसार में स्वार्थी नहीं कहलाऊँगा??
ब्रह्मदेव - (तेज स्वर में) परन्तु यदि यह सब न रोका गया तो क्या तुम बचा सकोगे अपने इस ज्ञान को, विज्ञान को? साकार कर सकोगे अपने उन सपनों को जिन्हें तुम देख रहे हो अपने और अपनी भावी पीढ़ी के भविष्य के लिए, मानवता के भविष्य के लिए? क्या झुठला सकोगे इस सत्य को कि सृष्टि के उस महाविनाश के उत्तरदायी तुम और केवल तुम होगे? और झुठला सकोगे इस सत्य को कि तुमने केवल अपनी मानसिक तृप्ति के लिए सम्पूर्ण जगत को बलिवेदी पर रख दिया......।
(ब्रह्मदेव अंतर्ध्यान हो जाते हैं और डॉक्टर मनु अपने चेहरे को दोनों हाथों में छुपा कर पीड़ा भरे स्वर में जोर चिल्लाते हैं)
डा मनु - नहीं.....नहीं, यह नहीं हो सकता.....नहीं हो सकता.....।
दृश्य ३
[प्रयोगशाला का वही दृश्य, सब कुछ व्यवस्थित क्रम से चल रहा है। कुछ ही क्षणों पश्चात डॉक्टर मनु उसी दीन-हीन अवस्था में प्रयोगशाला के मध्य प्रकट होते हैं और प्रयोगशाला में चारों ओर एक डरी-सहमी सी दृष्टि से देखते हैं। फिर उनके खोए-खोए से कदम एक दिशा में बढ़ते हैं। वे हाथों में एक उपकरण को उठाते हैं, उसे उलट-पलट कर देखते हैं और पटक देते हैं। फिर दूसरे उपकरण को छूते हैं परन्तु रोते हुए एकदम पीछे घूम जाते हैं और दोनों हाथों में अपना चेहरा छुपाकर घुटनों के बल पर फर्श पर गिर जाते हैं।]
डॉक्टर मनु - [चीखते हुए] नहीं, ब्रह्मदेव नहीं.....यह नहीं हो सकता, नहीं हो सकता ब्रह्मदेव......!
[उसी समय उनके कानों में एक आवाज गूँजती है]
आवाज - डा मनु, तुम्हारा जीवन, तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारा विज्ञान इस संसार के उत्थान के लिए है। यदि आज तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारा विज्ञान ही इस संसार के पतन का कारण बन रहा है, तो समेट लो इसे और इस मानव लोक को उस महाविनाश का ग्रास बनने से बचाकर प्राणी मात्र की उन भावी पीढ़ियों को एक ऐसा सुन्दर और पुष्ट संसार भेंट करो, जिसमें जीने वाला प्रत्येक प्राणी निरन्तर उन्नति के पथ पर अग्रसर होते हुए ज्ञान और विज्ञान की उन ऊँचाइयों को स्पर्श करें जिन्हें आज तुम पाना चाहते हो......हो सकता है उस समय तुम ना रहो परन्तु तुम्हारी वे भावी पीढियाँ तुम्हें सदैव अपने बीच अनुभव करेंगी। उसी से तुम्हें आत्मतुष्टि प्राप्त होगी.............तो हे मनु! उठो और महाकाल के बढ़ते उन दूषित कदमों को मोड़ दो! ताकि ब्रह्मदेव की इस अनोखी और अनमोल रचना 'पृथ्वी' की रक्षा हो सके। हाँ डॉक्टर मनु, इसकी रक्षा करो.....रक्षा करो! इसकी रक्षा करो.....!!!
[ डॉक्टर मनु धीरे-धीरे चेहरे से अपने हाथों को हटाते हैं और देर तक एकटक शून्य में देखते रहते हैं। फिर दृढ़ता के साथ अपने दोनों हाथों को ऊपर उठाकर कठोर स्वर में कहते हैं]
डॉक्टर मनु - हे परमपिता! मैं वचन देता हूँ, आपकी यह अनुपम-अनमोल रचना युगों-युगों तक जियेगी और यूँ हीं चलती रहेगी। किसी महाविनाश की छाया तक मेैं इसके पास से भी नहीं गुजरने दूँगा। मानवता बारम्बार इसकी रक्षा के लिए बलिदान होती रहेगी, ब्रह्मदेव......(मध्यम पड़ते स्वर में) बलिदान होती रहेगी..........।
पर्दा गिर जाता है।
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