चिंतन तीन प्रकार का होता है :-
1. पूर्वाग्रही चिंतन अर्थात् जड़ चिंतन
2. प्रेरित चिंतन अर्थात् जीवाश्मिक चिंतन
3. मौलिक चिंतन अर्थात् चैतन्य चिंतन
1. अब चूँकि पूर्वाग्रही चिंतन की तो प्रकृति ही जड़ है तो उसमें तो आगे किसी विकल्प की संभावना खोजना ही व्यर्थ होता है। इस प्रकार का चिंतन आधुनिक परगतिशीलों, बेज्ञानिकों और इल्हामीयों में भरपूर मात्रा मे पाया जाता है।
2. चूँकि प्रेरित चिंतन की प्रकृति जीवाश्मिक है तो इसमें विकल्प बस इतना भर ही होता है कि आज ये जीवाश्म मिला तो चिंतन ऐसा हो गया, कल वो जीवाश्म मिले तो चिंतन भी वैसा ही हो जाएगा।
उदाहरण के लिए इस प्रकार के चिंतक को यदि किसी हाथी का जीवाश्म बड़े-बड़े पंखों जैसी किसी आकृति के साथ प्राप्त हो जाय तो चाहे जैसे भी जुगाड़ भिड़ाना पड़े लेकिन वह उस हाथी को उड़ने वाला हाथी सिद्ध कर देगा। और साथ ही यह भी प्रमाणित कर देगा कि कालांतर में हाथियों नें अपने डैनों का प्रयोग करना बंद कर दिया था इसलिए वे शनै शनै लुप्त होते हुए अब हाथी के बड़े-बड़े कर्णपल्लवों के अवशेष रूप में बचे हैं। इस प्रकार का चिंतन अधिकांश पढ़ाकुओं में बखूबी पाया जाता है।
3. मौलिक चिंतन चूँकि स्वयं में ही चैतन्य है और चेतना सर्वव्यापि होने के तदन्तर उसका वास हमारे स्वः, हमारे अंतःकरण में होता है। अंतःकरण वासी चेतना ही कोई अभिव्यक्ति उत्पन्न कर सकती है। अतः इस प्रकार के चिंतन में किसी भी विचार का अनंत तक विकास संभव होता है। यहाँ तक कि एक स्थान पर पहुँचकर वह विचार सार्वभौमिक रूप धारण कर लेता है।
इस प्रकार का चिंतन करने लिए आवश्यक है कि चिंतक किताबों अर्थात अन्य के विचारों को दीपक की भाँति पकड़े। अर्थात जैसे राह में चलते हुए दीपक का प्रकाश जब आँखों पर नहीं पड़ने दिया जाता तभी आगे का मार्ग दिखाई पड़ता है। वैसे ही यदि चिंतक दूसरों के विचारो को स्वः पर आरूढ़ न होने दे, उन्हें केवल दिशासूचक के रूप में प्रयोग करे तभी आगे का मार्ग दिख पाएगा। अन्यथा वह दीपक के प्रकाश में चुँधियाया इधर-उधर टक्कर ही मारेगा। नया कुछ भी नहीं रच पाएगा।