[यहां प्रयुक्त 'सीमा-रेखा' शब्द केवल राष्ट्रों की सीमाओं के लिए नहीं बल्कि धर्म-जाति-संप्रदाय-लिंग आदि की जो रेखाऐं हमनें अपने चारों ओर खींच लीं हैं उन सभी के संदर्भ में है]
ओ! सीमा-रेखा पर लडने वालो
क्या मन में तुमने ठाना है?
खून बहाकर क्या जीतोगे
यह संसार तुम्हारा है!
धरती-अंबर, पर्वत-सागर
सूरज- चाँद-सितरा है,
नदिया-मलयज, कोकिल-शावक
चमन यह कितना प्यारा है!
बैर-भाव गर तुम छोडो
सब कुछ तुम पर वारा है।
मिटा लकीरें एक बनों
बस यह संदेश हमारा है।
रुको जरा ओ रण-दीवानो,
पहले जरा वे लाशें उठा लो
जिनको फिर ना कांधा मिलेगा!
माँ-बहनों के आँसू सुखा दो,
रण-भूमि का सन्नाटा हँसेगा!
जाते-जाते इक बात बता दो,
लहू धरा पर किसका गिरेगा?
नफरत की इस ज्वाला में
चमन बता दो किसका जलेगा!
नहीं विजय किसी को मिलती
बस होती मानवता की हानि है!
जिस मिटटी पर लहू है गिरता
बंजर वह बन जाती है।
भूत-पिशाच उगते हैं उसमें
नहीं रोटी पनप वहां पाती है!
जलजले नित आते उसमे
धरती माँ भी रोती है!
इसी लिए तो प्यारे बंधुओं
बस इतना कहता जाता हूँ,
छोड बंदूकें हल उठाओ
पुनर्नया निर्माण करो तुम
जोतो- खोदो इस धरा को
और सोना उपजाओ तुम
तभी भरेगा पेट सभी का
संग अपनी भूख मिटाओ तुम
नहीं कहता मैं कायर बनकर
जग को खूब हँसाओ तुम
दम है तो निज कर में
सागर से नीर उठाओ तुम
और मस्तक पर धरकर उसको
'पोखरण' में बरसाओ तुम
हरा भरा एक सुंदर आँचल
वसुंधरा को पहनाओ तुम!
भूख-प्यास से लड़ने वाले
हर प्राणि को यूँ सहलाओ तुम
हर चेहरे पर मुस्कान खिले
और संग उनके मुस्काओ तुम
प्रेम भाव की अग्नि दहाकर
खुद उसमें जल जाओ तुम
और प्रहलाद सम निज को तपाकर
सूरज सम चमकाओ तुम!
सीना ताने खडा यह अंबर
भू-चरणों में इसे झुकाओ तुम
सुमेरू गिरि को लेकर फिर से
मंथन अब कर डालो तुम
मिले जो विष-घट अमृत समझ
निज कंठ में उसको धारो तुम
और लेकर अमृत जगत में उसको
यूँ प्रेम सहित बिखराओ तुम
रहे ना द्वेष-ईर्षा इस जग में
ऐसा जहां बनाओ तुम
सत्य-अहिंसा का चोला धर
महा-मानव बन जाओ तुम
तब होवे जयकार तुमहारी
भारती-सुत कहलाओ तुम
भारती-सुत कहलाओ तुम
भारती-सुत कहलाओ तुम..........
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Tuesday, 3 January 2017
मानव धर्म का संदेश मानव जाति के नाम
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